Monday, May 16, 2005

सुन्दरकाण्ड

अथ तुलसीदास कृत रामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ..
श्रीगणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभोविजयते
श्रीरामचरितमानस
पञ्चम सोपान
सुन्दरकाण्ड

श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् .
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् .. १ ..

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा .
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च .. २ ..

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् .
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि .. ३ ..

जामवंत के बचन सुहाए . सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ..
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई . सहि दुख कंद मूल फल खाई .. १ ..
जब लगि आवौं सीतहि देखी . होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ..
यह कह नाइ सबन्हि कहुँ माथा . चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा .. २ ..
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर . कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ..
बार बार रघुबीर सँभारी . तरकेउ पवनतनय बल भारी .. ३ ..
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता . चलेउ सो गा पाताल तुरंता ..
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना . एही भाँति चलेउ हनुमाना .. ४ ..
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी . तैं मैनाक होहि श्रमहारी .. ५ ..

दोहा
हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम .
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम .. १ ..

जात पवनसुत देवन्ह देखा . जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ..
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता . पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता .. १ ..
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा . सुनत बचन कह पवनकुमारा ..
राम काजु करि फिरि मैं आवौं . सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं .. २ ..
तब तव बदन पैठिहउँ आई . सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ..
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना . ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना .. ३ ..
जोजन भरि तिहिं बदनु पसारा . कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ..
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ . तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ .. ४ ..
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा . तासु दून कपि रूप देखावा ..
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा . अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा .. ५ ..
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा . मागा बिदा ताहि सिरु नावा ..
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा . बुधि बल मरमु तोर मैं पावा .. ६ ..

दोहा
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान .
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान .. २ ..

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई .. करि माया नभु के खग गहई ..
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं . जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं .. १ ..
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई . एहि बिधि सदा गगनचर खाई ..
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा . तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा .. २ ..
ताहि मारि मारुतसुत बीरा . बारिधि पार गयउ मतिधीरा ..
तहाँ जाइ देखी बन सोभा . गुंजत चंचरीक मधु लोभा .. ३ ..
नाना तरु फल फूल सुहाए . खग मृग बृंद देखि मन भाए ..
सैल बिसाल देखि एक आगें . ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें .. ४ ..
उमा न कछु कपि कै अधिकाई .. प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ..
गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी . कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी .. ५ ..
अति उतंग जलनिधि चहु पासा . कनक कोटि कर परम प्रकासा .. ६ ..

छंद
कनक कोटि बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना .
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहुबिधि बना ..
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै .
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै .. १ ..
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं .
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ..
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं .
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं .. २ ..
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं .
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ..
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही .
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही .. ३ ..

दोहा
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार .
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार .. ३ ..

मसक समान रूप कपि धरी . लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ..
नाम लंकिनी एक निसिचरी . सो कह चलेसि मोहि निंदरी .. १ ..
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा . मोर अहार जहाँ लगि चोरा ..
मुठिका एक महा कपि हनी . रुधिर बमत धरनीं डनमनी .. २ ..
पुनि संभारि उठी सो लंका . जोरि पानि कर बिनय ससंका ..
जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा . चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा .. ३..
बिकल होसि तैं कपि कें मारे . तब जानेसु निसिचर संघारे ..
तात मोर अति पुन्य बहूता . देखेउँ नयन राम कर दूता .. ४ ..

दोहा
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग .
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग .. ४ ..

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा . हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ..
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई . गोपद सिंधु अनल सितलाई .. १ ..
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही . राम कृपा करि चितवा जाही ..
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना . पैठा नगर सुमिरि भगवाना .. २ ..
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा . देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ..
गयउ दसानान मंदिर माहीं . अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं .. ३ ..
सयन किएँ देखा कपि तेही . मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ..
भवन एक पुनि दीख सुहावा . हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा .. ४ ..

दोहा
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ .
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ .. ५ ..

लंका निसिचर निकर निवासा . इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ..
मन महुँ तरक करैं कपि लागा . तेहीं समय बिभीषनु जागा .. १ ..
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा . हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ..
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी . साधु ते होइ न कारज हानी .. २ ..
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए . सुनत बिभीषन उठि तहँ आए ..
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई . बिप्र कहहु निज कथा बुझाई .. ३ ..
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई . मोरें हृदय प्रीति अति होई ..
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी . आयहु मोहि करन बड़भागी .. ४ ..

दोहा
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम .
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम .. ६ ..

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी . जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ..
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा . करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा .. १ ..
तामस तनु कछु साधन नाहीं . प्रीति न पद सरोज मन माहीं ..
अब मोहि भा भरोस हनुमंता . बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता .. २ ..
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा . तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ..
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती . करहिं सदा सेवक पर प्रीती .. ३ ..
कहहु कवन मैं परम कुलीना . कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ..
प्रात लेइ जो नाम हमारा . तेहि दिन ताहि न मिले अहारा .. ४ ..

दोहा
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर .
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर .. ७ ..

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी . फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ..
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा . पावा अनिर्बाच्य विश्रामा .. १ ..
पुनि सब कथा बिभीषन कही . जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ..
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता . देखी चलेउँ जानकी माता .. २ ..
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई . चलेउ पवनसुत बिदा कराई ..
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ . बन असोक सीता रह जहवाँ .. ३ ..
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा . बैठेहिं बीति जात निसि जामा ..
कृस तनु सीस जटा एक बेनी . जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी .. ४ ..

दोहा
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन .
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन .. ८ ..

तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई . करइ बिचार करौं का भाई ..
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा . संग नारि बहु किएँ बनावा .. १ ..
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा . साम दान भय भेद देखावा ..
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी . मंदोदरी आदि सब रानी .. २ ..
तव अनुचरीं करेउँ पन मोरा . एक बार बिलोकु मम ओरा ..
तृन धरि ओट कहति बैदेही . सुमिरि अवधपति परम सनेही .. ३ ..
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा . कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ..
अस मन समुझु कहति जानकी . खल सुधि नहिं रघुबीर बान की .. ४ ..
सठ सूनें हरि आनेहि मोही . अधम निलज्ज लाज नहिं तोही .. ५ ..

दोहा
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान .
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन .. ९ ..

सीता तैं मम कृत अपमाना . कटिहउँ तब सिर कठिन कृपाना ..
नाहिं त सपदि मानु मम बानी . सुमुखि होति न त जीवन हानी .. १ ..
स्याम सरोज दाम सम सुंदर . प्रभु भुज करि कर सम दसकंदर ..
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा . सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा .. २ ..
चंद्रहास हरु मम परितापं . रघुपति बिरह अनल संजातं ..
सीतल निसित बहसि बर धारा . कह सीता हरु मम दुख भारा .. ३ ..
सुनत बचन पुनि मारन धावा . मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ..
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई . सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई .. ४ ..
मास दिवस महुँ कहा न माना . तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना .. ५ ..

दोहा
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद .
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद .. १० ..

त्रिजटा नाम राच्छसी एका . राम चरन रति निपुन बिबेका ..
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना . सीतहि सेइ करहु हित अपना .. १ ..
सपनें बानर लंका जारी . जातुधान सेना सब मारी ..
खर आरूढ़ नगन दससीसा . मुंडित सिर खंडित भुज बीसा .. २ ..
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई . लंका मनहुँ बिभीषन पाई ..
नगर फिरी रघुबीर दोहाई . तब प्रभु सीता बोलि पठाई .. ३ ..
यह सपना मैं कहउँ पुकारी . होइहि सत्य गएँ दिन चारी ..
तासु बचन सुनि ते सब डरीं . जनकसुता के चरनन्हि परीं .. ४ ..

दोहा
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच .
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच .. ११ ..

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी . मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ..
तजौं देह करु बेगि उपाई . दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई .. १ ..
आनि काठ रचु चिता बनाई . मातु अनल पुनि देहु लगाई ..
सत्य करहि मम प्रीति सयानी . सुनै को श्रवन सूल सम बानी .. २ ..
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि . प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ..
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी . अस कहि सो निज भवन सिधारी .. ३ ..
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला . मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ..
देखिअत प्रगट गगन अंगारा . अवनि न आवत एकउ तारा .. ४ ..
पावकमय ससि स्रवत न आगी . मानहुँ मोहि जानि हतभागी ..
सुनहि बिनय मम बिटप असोका . सत्य नाम करु हरु मम सोका .. ५ ..
नूतन किसलय अनल समाना . देहि अगिनि जनि करहि निदाना ..
देखि परम बिरहाकुल सीता . सो छन कपिहि कलप सम बीता .. ६ ..

दोहा
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब .
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ .. १२ ..

तब देखी मुद्रिका मनोहर . राम नाम अंकित अति सुंदर ..
चकित चितव मुदरी पहिचानी . हरष विषाद हृदयँ अकुलानी .. १ ..
जीति को सकइ अजय रघुराई . माया तें असि रचि नहिं जाई ..
सीता मन बिचार कर नाना . मधुर बचन बोलेउ हनुमाना .. २ ..
रामचंद्र गुन बरनैं लागा . सुनतहिं सीता कर दुख भागा ..
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई . आदिहु तें सब कथा सुनाई .. ३ ..
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई . कही सो प्रगट होति किन भाई ..
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ . फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ .. ४ ..
राम दूत मैं मातु जानकी . सत्य सपथ करुनानिधान की ..
यह मुद्रिका मातु मैं आनी . दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी .. ५ ..
नर बानरहि संग कहु कैसें . कही कथा भई संगति जैसें .. ६ ..

दोहा
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास .
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास .. १३ ..

हरिजन हानि प्रीति अति गाढ़ी . सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ..
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना . भयहु तात मो कहुँ जलजाना .. १ ..
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी . अनुज सहित सुख भवन खरारी ..
कोमलचित कृपाल रघुराई . कपि केहि हेतु धरी निठुराई .. २ ..
सहज बानि सेवक सुख दायक . कबहुँक सुरति करत रघुनायक ..
कबहुँ नयन मम सीतल ताता . होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता .. ३ ..
बचनु न आव नयन भरे बारी . अहह नाथ हौं निपट बिसारी ..
देखि परम बिरहाकुल सीता . बोला कपि मृदु बचन बिनीता .. ४ ..
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता . तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ..
जनि जननी मानहु जियँ ऊना . तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना .. ५ ..

दोहा
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर .
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर .. १४ ..

कहेउ राम बियोग तव सीता . मो कहुँ सकल भए बिपरीता ..
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू . कालनिसा सम निसि ससि भानू .. १ ..
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा . बारिद तपत तेल जनु बरिसा ..
जे हित रहे करत तेइ पीरा . उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा .. २ ..
कहेहू तें कछु दुख घटि होई . काहि कहौं यह जान न कोई ..
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा . जानत प्रिया एकु मनु मोरा .. ३ ..
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं . जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ..
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही . मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही .. ४ ..
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता . सुमिरु राम सेवक सुखदाता ..
उर आनहु रघुपति प्रभुताई . सुनि मम बचन तजहु कदराई .. ५ ..

दोहा
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु .
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु .. १५ ..

जौं रघुबीर होति सुधि पाई . करते नहिं बिलंबु रघुराई ..
राम बान रबि उएँ जानकी . तम बरूथ कहँ जातुधान की .. १ ..
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई . प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ..
कछुक दिवस जननी धरु धीरा . कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा .. २ ..
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं . तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ..
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना . जातुधान अति भट बलवाना .. ३ ..
मोरें हृदय परम संदेहा . सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ..
कनक भूधराकार सरीरा . समर भयंकर अतिबल बीरा .. ४ ..
सीता मन भरोस तब भयऊ . पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ .. ५ ..

दोहा
सुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल .
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल .. १६ ..

मन संतोष सुनत कपि बानी . भगति प्रताप तेज बल सानी ..
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना . होहु तात बल सील निधाना .. १ ..
अजर अमर गुननिधि सुत होहू . करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ..
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना . निर्भर प्रेम मगन हनुमाना .. २ ..
बार बार नाएसि पद सीसा . बोला बचन जोरि कर कीसा ..
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता . आसिष तव अमोघ बिख्याता .. ३ ..
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा . लागि देखि सुंदर फल रूखा ..
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी . परम सुभट रजनीचर भारी .. ४ ..
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं . जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं .. ५ ..

दोहा
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु .
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु .. १७ ..

चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा . फल खाएसि तरु तौरैं लागा ..
रहे तहां बहु भट रखवारे . कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे .. १ ..
नाथ एक आवा कपि भारी . तेहिं असोक बाटिका उजारी ..
खाएसि फल अरु बिटप उपारे . रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे .. २ ..
सुनि रावन पठए भट नाना . तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ..
सब रजनीचर कपि संघारे . गए पुकारत कछु अधमारे .. ३ ..
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा . चला संग लै सुभट अपारा ..
आवत देखि बिटप गहि तर्जा . ताहि निपाति महाधुनि गर्जा .. ४ ..

दोहा
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि .
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि .. १८ ..

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना . पठएसि मेघनाद बलवाना ..
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही . देखिअ कपिहि कहाँ कर आही .. १ ..
चला इंद्रजित अतुलित जोधा . बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ..
कपि देखा दारुन भट आवा . कटकटाइ गर्जा अरु धावा .. २ ..
अति बिसाल तरु एक उपारा . बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ..
रहे महाभट ताके संगा . गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा .. ३ ..
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा . भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ..
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई . ताहि एक छन मुरुछा आई .. ४ ..
उठि बहोरि कीन्हसि बहु माया . जीति न जाइ प्रभंजन जाया .. ५ ..

दोहा
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार .
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार .. १९ ..

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा . परतिहुँ बार कटकु संघारा ..
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयउ . नागपास बांधेसि लै गयउ .. १ ..
जासु नाम जपि सुनहु भवानी . भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ..
तासु दूत कि बंध तरु आवा . प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा .. २ ..
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए . कौतुक लागि सभाँ सब आए ..
दसमुख सभा दीखि कपि जाई . कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई .. ३ ..
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता . भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ..
देखि प्रताप न कपि मन संका . जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका .. ४ ..

दोहा
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद .
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद .. २० ..

कह लंकेस कवन तैं कीसा . केहि कें बल घालेहि बन खीसा ..
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही . देखउँ अति असंक सठ तोही .. १ ..
मारे निसिचर केहिं अपराधा . कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ..
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया . पाइ जासु बल बिरचित माया .. २ ..
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा . पालत सृजत हरत दससीसा ..
जा बल सीस धरत सहसानन . अंडकोस समेत गिरि कानन .. ३ ..
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता . तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ..
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा . तेहि समेत नृप दल मद गंजा .. ४ ..
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली . बधे सकल अतुलित बलसाली .. ५ ..

दोहा
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि .
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि .. २१ ..

जानेउ मैं तुम्हारि प्रभुताई . सहसबाहु सन परी लराई ..
समर बालि सन करि जसु पावा . सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा .. १ ..
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा . कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ..
सब कें देह परम प्रिय स्वामी . मारहिं मोहि कुमारग गामी .. २ ..
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे . तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ..
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा . कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा .. ३ ..
बिनती करउँ जोरि कर रावन . सुनहु मान तजि मोर सिखावन ..
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी . भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी .. ४ ..
जाकें डर अति काल डेराई . जो सुर असुर चराचर खाई ..
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै . मोरे कहें जानकी दीजै .. ५ ..

दोहा
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि .
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि .. २२ ..

राम चरन पंकज उर धरहू . लंकाँ अचल राज तुम्ह करहू ..
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका . तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका .. १ ..
राम नाम बिनु गिरा न सोहा . देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ..
बसन हीन नहिं सोह सुरारी . सब भूषन भूषित बर नारी .. २ ..
राम बिमुख संपति प्रभुताई . जाइ रही पाई बिनु पाई ..
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं . बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं .. ३ ..
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी . बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ..
संकर सहस बिष्नु अज तोही . सकहिं न राखि राम कर द्रोही .. ४ ..

दोहा
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान .
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान .. २३ ..

जदपि कही कपि अति हित बानी . भगति बिबेक बिरति नय सानी ..
बोला बिहसि महा अभिमानी . मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी .. १ ..
मृत्यु निकट आई खल तोही . लागेसि अधम सिखावन मोही ..
उलटा होइहि कह हनुमाना . मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना .. २ ..
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना . बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ..
सुनत निसाचर मारन धाए . सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए .. ३ ..
नाइ सीस करि बिनय बहूता . नीति बिरोधा न मारिअ दूता ..
आन दंड कछु करिअ गोसाँई . सबहीं कहा मंत्र भल भाई .. ४ ..
सुनत बिहसि बोला दसकंधर . अंग भंग करि पठइअ बंदर .. ५ ..

दोहा
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ .
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ .. २४ ..

पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि . तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ..
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई . देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई .. १ ..
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना . भइ सहाय सारद मैं जाना ..
जातुधान सुनि रावन बचना . लागे रचें मूढ़ सोइ रचना .. २ ..
रहा न नगर बसन घृत तेला . बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ..
कौतुक कहँ आए पुरबासी . मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी .. ३ ..
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी . नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ..
पावक जरत देखि हनुमंता . भयउ परम लघुरूप तुरंता .. ४ ..
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं . भइँ सभीत निसाचर नारीं .. ५ ..

दोहा
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास .
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास .. २५ ..

देह बिसाल परम हरुआई . मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ..
जरइ नगर भा लोग बिहाला . झपट लपट बहु कोटि कराला .. १ ..
तात मातु हा सुनिअ पुकारा . एहिं अवसर को हमहि उबारा ..
हम जो कहा यह कपि नहिं होई . बानर रूप धरें सुर कोई .. २ ..
साधु अवग्या कर फलु ऐसा . जरइ नगर अनाथ कर जैसा ..
जारा नगर निमिष एक माहीं . एक बिभीषन कर गृह नाहीं .. ३ ..
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा . जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ..
उलटि पलटि लंका सब जारी . कूदि परा पुनि सिंधु मझारी .. ४ ..

दोहा
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि .
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि .. २६ ..

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा . जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ..
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ . हरष समेत पवनसुत लयऊ .. १ ..
कहेहु तात अस मोर प्रनामा . सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ..
दीन दयाल बिरिदु सँभारी . हरहु नाथ मम संकट भारी .. २ ..
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु . बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ..
मास दिवस महुँ नाथ न आवा . तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा .. ३ ..
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना . तुम्हहू तात कहत अब जाना ..
तोहि देखि सीतलि भइ छाती . पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती .. ४ ..

दोहा
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह .
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह .. २७ ..

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी . गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ..
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा . सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा .. १ ..
हरषे सब बिलोकि हनुमाना . नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ..
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा . कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा .. २ ..
मिले सकल अति भए सुखारी . तलफत मीन पाव जिमि बारी ..
चले हरषि रघुनायक पासा . पूँछत कहत नवल इतिहासा .. ३ ..
तब मधुबन भीतर सब आए . अंगद संमत मधु फल खाए ..
रखवारे जब बरजन लागे मुष्टि प्रहार हनत सब भागे .. ४ ..

दोहा
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज .
सुन सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज .. २८ ..

जौं न होति सीता सुधि पाई . मधुबन के फल सकहिं कि खाई ..
एहि बिधि मन बिचार कर राजा . आइ गए कपि सहित समाजा .. १ ..
आइ सबन्हि नावा पद सीसा . मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ..
पूँछी कुसल कुसल पद देखी . राम कृपाँ भा काजु बिसेषी .. २ ..
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना . राखे सकल कपिन्ह के प्राना ..
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ . कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ .. ३ ..
राम कपिन्ह जब आवत देखा . किएँ काजु मन हरष बिसेषा ..
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई . परे सकल कपि चरनन्हि जाई .. ४ ..

दोहा
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज .
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज .. २९..

जामवंत कह सुनु रघुराया . जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ..
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर . सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर .. १ ..
सोइ बिजई बिनई गुन सागर . तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ..
प्रभु कीं कृपा भयउ सब काजू . जन्म हमार सुफल भा आजू .. २ ..
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी . सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ..
पवनतनय के चरित सुहाए . जामवंत रघुपतिहि सुनाए .. ३ ..
सुनत कृपानिधि मन अति भाए . पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ..
कहहु तात केहि भाँति जानकी . रहति करति रच्छा स्वप्रान की .. ४ ..

दोहा
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट .
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट .. ३० ..

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही . रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ..
नाथ जुगल लोचन भरि बारी . बचन कहे कछु जनककुमारी .. १ ..
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना . दीन बंधु प्रनतारति हरना ..
मन क्रम बचन चरन अनुरागी . केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी .. २..
अवगुन एक मोर मैं माना . बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ..
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा . निसरत प्रान करहिं हठि बाधा .. ३ ..
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा . स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ..
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी . जरैं न पाव देह बिरहागी .. ४ ..
सीता कै अति बिपति बिसाला . बिनहिं कहें भलि दीनदयाला .. ५ ..

दोहा
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति .
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति .. ३१ ..

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना . भरि आए जल राजिव नयना ..
बचन कायँ मन मम गति जाही . सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही .. १ ..
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई . जब तव सुमिरन भजन न होई ..
केतिक बात प्रभु जातुधान की . रिपुहि जीति आनिबी जानकी .. २ ..
सुनु कपि तोहि समान उपकारी . नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ..
प्रति उपकार करौं का तोरा . सनमुख होइ न सकत मन मोरा .. ३ ..
सुनु सत तोहि उरिन मैं नाहीं . देखेउँ करि बिचार मन माहीं ..
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता . लोचन नीर पुलक अति गाता .. ४ ..

दोहा
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत .
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत .. ३२ ..

बार बार प्रभु चहइ उठावा . प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ..
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा . सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा .. १ ..
सावधान मन करि पुनि संकर . लागे कहन कथा अति सुंदर ..
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा . कर गहि परम निकट बैठावा .. २ ..
कहु कपि रावन पालित लंका . केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ..
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना . बोला बचन बिगत हनुमाना .. ३ ..
साखामृग कै बड़ि मनुसाई . साखा तें साखा पर जाई ..
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा . निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा .. ४ ..
सो सब तव प्रताप रघुराई . नाथ न कछू मोरि प्रभुताई .. ५ ..

दोहा
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल .
तव प्रभावँ वड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल .. ३३ ..

नाथ भगति अति सुखदायनी . देहु कृपा करि अनपायनी ..
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी . एवमस्तु तब कहेउ भवानी .. १ ..
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना . ताहि भजनु तजि भाव न आना ..
यह संबाद जासु उर आवा . रघुपति चरन भगति सोइ पावा .. २ ..
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा . जय जय जय कृपाल सुखकंदा ..
तब रघुपति कपिपतिहिं बोलावा . कहा चलैं कर करहु बनावा .. ३ ..
अब बिलंबु केहि कारन कीजे . तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ..
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी . नभ तें भवन चले सुर हरषी .. ४ ..

दोहा
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ .
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ .. ३४ ..

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा . गर्जहिं भालु महाबल कीसा ..
देखी राम सकल कपि सेना . चितइ कृपा करि राजिव नैना .. १ ..
राम कृपा बल पाइ कपिंदा . भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ..
हरषि राम तब कीन्ह पयाना . सगुन भए सुंदर सुभ नाना .. २ ..
जासु सकल मंगलमय कीती . तासु पयान सगुन यह नीती ..
प्रभु पयान जाना बैदेहीं . फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं .. ३ ..
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई . असगुन भयउ रावनहि सोई ..
चला कटकु को बरनैं पारा . गर्जहिं बानर भालु अपारा .. ४ ..
नख आयुध गिरि पादपधारी . चले गगन महि इच्छाचारी ..
केहरिनाद भालु कपि करहीं . डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं .. ५ ..

छंद
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे .
मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ..
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं .
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं .. १ ..
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई .
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ..
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी .
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी .. २ ..

दोहा
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर .
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर .. ३५ ..

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका . जब तें जारि गयउ कपि लंका ..
निज निज गृह सब करहिं बिचारा . नहिं निसिचर कुल केर उबारा .. १ ..
जासु दूत बल बरनि न जाई . तेहि आएँ पुर कवन भलाई ..
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी . मंदोदरी अधिक अकुलानी .. २ ..
रहसि जोरि कर पति पग लागी . बोली बचन नीति रस पागी ..
कंत करष हरि सन परिहरहू . मोर कहा अति हित हियँ धरहू .. ३ ..
समुझत जासु दूत कइ करनी . स्रवहिं गर्भ रजनीचर धरनी ..
तासु नारि निज सचिव बोलाई . पठवहु कंत जो चहहु भलाई .. ४ ..
तव कुल कमल बिपिन दुखदायई . सीता सीत निसा सम आई ..
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें . हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें .. ५ ..

दोहा
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक .
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक .. ३६ ..

श्रवन सुनि सठ ता करि बानी . बिहसा जगत बिदित अभिमानी ..
सभय सुभाउ नारि कर साचा . मंगल महुँ भय मन अति काचा .. १ ..
जों आवइ मर्कट कटकाई . जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ..
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा . तासु नारि सभीत बड़ि हासा .. २ ..
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई . चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ..
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता . भयउ कंत पर बिधि बिपरीता .. ३ ..
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई . सिंधु पार सेना सब आई ..
बूझेसि सचिव उचित मत कहेहू . ते सब हँसे मष्ट करि रहेहू .. ४ ..
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं . नर बानर केहि लेखे माहीं .. ५ ..

दोहा
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस .
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास .. ३७ ..

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई . अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ..
अवसर जानि बिभीषनु आवा . भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा .. १ ..
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन . बोला बचन पाइ अनुसासन ..
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता . मति अनुरूप कहउँ हित ताता .. २ ..
जो आपन चाहै कल्याना . सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ..
सो परनारि लिलार गोसाई . तजउ चउथि के चंद कि नाई .. ३ ..
चौदह भुवन एक पति होई . भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ..
गुन सागर नागर नर जोऊ . अलप लोभ भल कहइ न कोऊ .. ४ ..

दोहा
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ .
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत .. ३८ ..

तात राम नहिं नर भूपाला . भुवनेस्वर कालहु कर काला ..
ब्रह्म अनामय अज भगवंता . ब्यापक अजित अनादि अनंता .. १ ..
गो द्विज धेनु देव हितकारी . कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ..
जन रंजन भंजन खल ब्राता . बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता .. २ ..
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा . प्रनतारति भंजन रघुनाथा ..
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही . भजहु राम बिनु हेतु सनेही .. ३ ..
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा . बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ..
जासु नाम त्रय ताप नसावन . सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन .. ४ ..

दोहा
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस .
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस .. ३९ क ..
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात .
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात .. ३९ ख ..

माल्यवंत अति सचिव सयाना . तासु बचन सुनि अति सुख माना ..
तात अनुज तव नीति बिभूषन . सो उर धरहु जो कहत बिभीषन .. १ ..
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ . दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ..
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी . कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी .. २ ..
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं . नाथ पुरान निगम अस कहहीं ..
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना . जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना .. ३ ..
तव उर कुमति बसी बिपरीता . हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ..
कालराति निसिचर कुल केरी . तेहि सीता पर प्रीति घनेरी .. ४ ..

दोहा
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार .
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार .. ४० ..

बुध पुरान श्रुति संमत बानी . कही बिभीषन नीति बखानी ..
सुनत दसानन उठा रिसाई . खल तोहि निकट मृत्य अब आई .. १ ..
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा . रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ..
कहसि न खल अस को जग माहीं . भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं .. २ ..
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती . सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ..
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा . अनुज गहे पद बारहिं बारा .. ३ ..
उमा संत कइ इहइ बड़ाई . मंद करत जो करइ भलाई ..
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा . रामु भजें हित नाथ तुम्हारा .. ४ ..
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ . सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ .. ५ ..

दोहा
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि .
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि .. ४१ ..

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं . आयूहीन भए सब तबहीं ..
साधु अवग्या तुरत भवानी . कर कल्यान अखिल कै हानी .. १ ..
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा . भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ..
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं . करत मनोरथ बहु मन माहीं .. २ ..
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता . अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ..
जे पद पसरि तरी रिषिनारी . दंड़क कानन पावनकारी .. ३ ..
जे पद जनकसुताँ उर लाए . कपट कुरंग संग धर धाए ..
हर उर सर सरोज पद जेई . अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई .. ४ ..

दोहा
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ .
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ .. ४२ ..

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा . आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ..
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा . जान कोउ रिपु दूत बिसेषा .. १ ..
ताहि राखि कपीस पहिं आए . समाचार सब ताहि सुनाए ..
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई . आवा मिलन दसानन भाई .. २ ..
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा . कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ..
जानि न जाइ निसाचर माया . कामरूप केहि कारन आया .. ३ ..
भेद हमार लेन सठ आवा . राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ..
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी . मम पन सरनागत भयहारी .. ४ ..
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना . सरनागत बच्छल भगवाना .. ५ ..

दोहा
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि .
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि .. ४३ ..

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू . आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ..
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं . जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं .. १ ..
पापवंत कर सहज सुभाऊ . भजहु मोर तेहि भाव न काऊ ..
जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई . मोरें सनमुख आव कि सोई .. २ ..
निर्मल मन जन सो मोहि पावा . मोहि कपट छल छिद्र न भावा ..
भेद लेन पठवा दससीसा . तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा .. ३ ..
जग महुँ सखा निसाचर जेते . लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ..
जो सभीत आवा सरनाईं . राखिहउँ ताहि प्रान की नाईं .. ४ ..

दोहा
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत .
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत .. ४४ ..

सादर तेहि आगें करि बानर . चले जहाँ रघुपति करुनाकर ..
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता . नयनानंद दान के दाता .. १ ..
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी . रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ..
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन . स्यामल गात प्रनत भय मोचन .. २ ..
सिंघ कंध आयत उर सोहा . आनन अमित मदन मन मोहा ..
नयन नीर पुलकित अति गाता . मन धरि धीर कही मृदु बाता .. ३ ..
नाथ दसानन कर मैं भ्राता . निसिचर बंस जनम सुरत्राता ..
सहज पापप्रिय तामस देहा . जथा उलूकहि तम पर नेहा .. ४ ..

दोहा
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर .
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर .. ४५ ..

अस कहि करत दंडवत देखा . तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ..
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा . भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा .. १ ..
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी . बोले बचन भगत भय हारी ..
कहु लंकेस सहित परिवारा . कुसल कुठाहर बास तुम्हारा .. २ ..
खल मंडलीं बसहु दिन राती . सखा धरम निबहइ केहि भाँती ..
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती . अति नय निपुन न भाव अनीती .. ३ ..
बरु भल बास नरक कर ताता . दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ..
अब पद देखि कुसल रघुराया . जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया .. ४ ..

दोहा
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम .
जब लगि भजन न राम कहुँ सोक धाम तजि काम .. ४६ ..

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना . लोभ मोह मच्छर मद माना ..
जब लगि उर न बसत रघुनाथा . धरें चाप सायक कटि भाथा .. १ ..
ममता तरुन तमी अँधिआरी . राग द्वेष उलूक सुखकारी ..
तब लगि बसति जीव मन माहीं . जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं .. २ ..
अब मैं कुसल मिटे भय भारे . देखि राम पद कमल तुम्हारे ..
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला . ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला .. ३ ..
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ . सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ..
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा . तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा .. ४ ..

दोहा
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज .
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज .. ४७ ..

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ . जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ..
जौं नर होइ चराचर द्रोही . आवौ सभय सरन तकि मोही .. १ ..
तजि मद मोह कपट छल नाना . करउँ सद्य तेहि साधु समाना ..
जननी जनक बंधु सुत दारा . तनु धनु भवन सुहृद परिवारा .. २ ..
सब कै ममता ताग बटोरी . मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ..
समदरसी इच्छा कछु नाहीं . हरष सोक भय नहिं मन माहीं .. ३ ..
अस सज्जन मम उर बस कैसें . लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ..
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें . धरउँ देह नहिं आन निहोरें .. ४ ..

दोहा
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम .
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम .. ४८ ..

सुन लंकेस सकल गुन तोरें . तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ..
राम बचन सुनि बानर जूथा . सकल कहहिं जय कृपा बरूथा .. १ ..
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी . नहिं अघात श्रवनामृत जानी ..
पद अंबुज गहि बारहिं बारा . हृदयँ समात न प्रेमु अपारा .. २ ..
सुनहु देव सचराचर स्वामी . प्रनतपाल उर अंतरजामी ..
उर कछु प्रथम बासना रही . प्रभु पद प्रीति सरित सो बही .. ३ ..
अब कृपाल निज भगति पावनी . देहु सदा सिव मन भावनी ..
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा . मागा तुरत सिंधु कर नीरा .. ४ ..
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं . मोर दरसु अमोघ जग माहीं ..
अस कहि राम तिलक तेहि सारा . सुमन वृष्टि नभ भई अपारा .. ५ ..

दोहा
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड .
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड .. ४९ क ..
जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिएँ दस माथ .
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ .. ४९ ख ..

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना . ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ..
निज जन जानि ताहि अपनावा . प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा .. १ ..
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी . सर्बरूप सब रहित उदासी ..
बोले बचन नीति प्रतिपालक . कारन मनुज दनुज कुल घालक .. २ ..
सुनु कपीस लंकापति बीरा . केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ..
संकुल मकर उरग झष जाती . अति अगाध दुस्तर सब भाँती .. ३ ..
कह लंकेस सुनहु रघुनायक . कोटि सिंधु सोषक तव सायक ..
जद्यपि तदपि नीति असि गाई . बिनय करिअ सागर सन जाई .. ४ ..

दोहा
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि .
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि .. ५० ..

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई . करिअ दैव जौं होइ सहाई ..
मंत्र न यह लछिमन मन भावा . राम बचन सुनि अति दुख पावा .. १ ..
नाथ दैव कर कवन भरोसा . सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ..
कादर मन कहुँ एक अधारा . दैव दैव आलसी पुकारा .. २ ..
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा . ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ..
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई . सिंधि समीप गए रघुराई .. ३ ..
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई . बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ..
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए . पाछें रावन दूत पठाए .. ४ ..

दोहा
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह .
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह .. ५१ ..

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ . अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ..
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने . सकल बाँधि कपीस पहिं आने .. १ ..
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर . अंग भंग करि पठवहु निसिचर ..
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए . बाँधि कटक चहु पास फिराए .. २ ..
बहु प्रकार मारन कपि लागे . दीन पुकारत तदपि न त्यागे ..
जो हमार हर नासा काना . तेहि कोसलाधीस कै आना .. ३ ..
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए . दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ..
रावन कर दीजहु यह पाती . लछिमन बचन बाचु कुलघाती .. ४ ..

दोहा
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार .
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार .. ५२ ..

तुरत नाइ लछिमन पद माथा . चले दूत बरनत गुन गाता ..
कहत राम जसु लंकाँ आए . रावन चरन सीस तिन्ह नाए .. १ ..
बिहसि दसानन पूँछी बाता . कहसि न सुक आपनि कुसलाता ..
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी . जाहि मृत्यु आई अति नेरी .. २ ..
करत राज लंका सठ त्यागी . होइहि जव कर कीट अभागी ..
पुनि कहु भालु कीस कटकाई . कठिन काल प्रेरित चलि आई .. ३ ..
जिन्ह के जीवन कर रखवारा . भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ..
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी . जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी .. ४ ..

दोहा
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर .
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर .. ५३ ..

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें . मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ..
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा . जातहिं राम तिलक तेहि सारा .. १ ..
रावन दूत हमहि सुनि काना . कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ..
श्रवन नासिका काटैं लागे . राम सपथ दीन्हें हम त्यागे .. २ ..
पूँछिहु नाथ राम कटकाई . बदन कोटि सत बरनि न जाई ..
नाना बरन भालु कपि धारी . बिकटानन बिसाल भयकारी .. ३ ..
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा . सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ..
अमित नाम भट कठिन कराला . अमित नाग बल बिपुल बिसाला .. ४ ..

दोहा
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि .
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि .. ५४ ..

ए कपि सब सुग्रीव समाना . इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ..
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं . तृन समान त्रैलोकहि गनहीं .. १ ..
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर . पदुम अठारह जूथप बंदर ..
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं . जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं .. २ ..
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा . आयसु पै न देहिं रघुनाथा ..
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला . पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला .. ३ ..
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा . ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ..
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका . मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका .. ४ ..

दोहा
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम .
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम .. ५५ ..

राम तेज बल बुधि बिपुलाई . सेष सहस सत सकहिं न गाई ..
सक सर एक सोषि सत सागर . तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर .. १ ..
तासु बचन सुनि सागर पाहीं . मागत पंथ कृपा मन माहीं ..
सुनत बचन बिहसा दससीसा . जौं असि मति सहाय कृत कीसा .. २ ..
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई . सागर सन ठानी मचलाई ..
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई . रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई .. ३ ..
सचिव सभीत बिभीषन जाकें . बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ..
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी . समय बिचार पत्रिका काढ़ी .. ४ ..
रामानुज दीन्ही यह पाती . नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ..
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन . सचिव बोलि सठ लाग बचावन .. ५ ..

दोहा
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस .
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस .. ५६ क ..
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग .
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग .. ५६ ख ..

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई . कहत दसानन सबहि सुनाई ..
भूमि परा कर गहत अकासा . लघु तापस कर बाग बिलासा .. १ ..
कह सुक नाथ सत्य सब बानी . समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ..
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा . नाथ राम सन तजहु बिरोधा .. २ ..
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ . जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ..
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही . उर अपराध न एकउ धरही .. ३ ..
जनकसुता रघुनाथहि दीजे . एतना कहा मोर प्रभु कीजे ..
जब तेहि कहा देन बैदेही . चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही .. ४ ..
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ . कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ..
करि प्रनामु निज कथा सुनाई . राम कृपाँ आपनि गति पाई .. ५ ..
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी . राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ..
बंदि राम पद बारहिं बारा . मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा .. ६ ..

दोहा
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति .
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति .. ५७ ..

लछिमन बान सरासन आनू . सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ..
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती . सहज कृपन सन सुंदर नीती .. १ ..
ममता रत सन ग्यान कहानी . अति लोभी सन बिरति बखानी ..
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा . ऊसर बीज बएँ फल जथा .. २ ..
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा . यह मत लछिमन के मन भावा ..
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला . उठी उदधि उर अंतर ज्वाला .. ३ ..
मकर उरग झष गन अकुलाने . जरत जंतु जलनिधि जब जाने ..
कनक थार भरि मनि गन नाना . बिप्र रूप आयउ तजि माना .. ४ ..

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच .
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच .. ५८ ..

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे . छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ..
गगन समीर अनल जल धरनी . इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी .. १ ..
तव प्रेरित मायाँ उपजाए . सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ..
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई . सो तेहि भाँति रहें सुख लहई .. २ ..
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही . मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ..
ढोल गँवार सूद्र पसु नारी . सकल ताड़ना के अधिकारी .. ३ ..
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई . उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ..
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई . करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई .. ४ ..

दोहा
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ .
जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ .. ५९ ..

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई . लरिकाईं रिषि आसिष पाई .
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे . तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे .. १ ..
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई . करिहउँ बल अनुमान सहाई ..
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ . जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ .. २ ..
एहिं सर मम उत्तर तट बासी . हतहु नाथ खल नर अघ रासी ..
सुनि कृपाल सागर मन पीरा . तुरतहिं हरी राम रन धीरा .. ३ ..
देखि राम बल पौरुष भारी . हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ..
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा . चरन बंदि पाथोधि सिधावा .. ४ ..

छंद
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ .
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गाउअऊ ..
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना .
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ..

दोहा
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान .
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान .. ६० ..

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः .

.. सियावर रामचन्द्र की जै ..

Sunday, January 09, 2005

प्रथम सोपान बालकाण्ड

श्री रामचरित मानस प्रथम सोपान बालकाण्ड
-- गोस्वामी तुलसीदास

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्लोक
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥ १ ॥

भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम् ॥ २ ॥

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम् ।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥ ३ ॥

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ ॥ ४ ॥

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम् ।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् ॥ ५ ॥

यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः ।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ॥ ६ ॥

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि ।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा\-
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥ ७ ॥


सो॰ जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन ।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥ १ ॥

मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन ।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन ॥ २ ॥

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन ।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन ॥ ३ ॥

कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन ।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ॥ ४ ॥

बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥ ५ ॥

बंदउ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती ॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥

दो॰ जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ १ ॥

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन ॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना । मोह जनित संसय सब हरना ॥
सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥
साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा । बंदनीय जेहिं जग जस पावा ॥
मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू ॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ॥
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी । करम कथा रबिनंदनि बरनी ॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥
अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥

दो॰ सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥ २ ॥

मज्जन फल पेखिअ ततकाला । काक होहिं पिक बकउ मराला ॥
सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसंगति महिमा नहिं गोई ॥
बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥
जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥
मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधात सुहाई ॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ॥
सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें ॥

दो॰ बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ॥ ३(क) ॥

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥ ३(ख) ॥

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ । जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें । उजरें हरष बिषाद बसेरें ॥
हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी । पर हित घृत जिन्ह के मन माखी ॥
तेज कृसानु रोष महिषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥
उदय केत सम हित सबही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ॥
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना । पर अघ सुनइ सहस दस काना ॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ॥
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा । सहस नयन पर दोष निहारा ॥

दो॰ उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति ।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ॥ ४ ॥

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा । तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ॥
बंदउँ संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु बरना ॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं । मिलत एक दुख दारुन देहीं ॥
उपजहिं एक संग जग माहीं । जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ॥
सुधा सुरा सम साधू असाधू । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥
भल अनभल निज निज करतूती । लहत सुजस अपलोक बिभूती ॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू । गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥
गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ॥

दो॰ भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु ।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु ॥ ५ ॥

खल अघ अगुन साधू गुन गाहा । उभय अपार उदधि अवगाहा ॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद बिलगाए ॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना ॥
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती । साधु असाधु सुजाति कुजाती ॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू । अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा । लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा ॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा । मरु मारव महिदेव गवासा ॥
सरग नरक अनुराग बिरागा । निगमागम गुन दोष बिभागा ॥

दो॰ जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥ ६ ॥

अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥
काल सुभाउ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई ॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं ॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ॥
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ॥
उधरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू ॥
किएहुँ कुबेष साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ॥
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं । सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी ॥
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई ॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥

दो॰ ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ ७(क) ॥

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥ ७(ख) ॥

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ ७(ग) ॥

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब ।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥ ७(घ) ॥

आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ॥
सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू ॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । तातें बिनय करउँ सब पाही ॥
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी ॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥
जौ बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी । जे पर दूषन भूषनधारी ॥
निज कवित केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ॥
जे पर भनिति सुनत हरषाही । ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ॥
जग बहु नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई ॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ॥

दो॰ भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास ।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास ॥ ८ ॥

खल परिहास होइ हित मोरा । काक कहहिं कलकंठ कठोरा ॥
हंसहि बक दादुर चातकही । हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥
कबित रसिक न राम पद नेहू । तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी । हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी ॥
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी । तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी ॥
हरि हर पद रति मति न कुतरकी । तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की ॥
राम भगति भूषित जियँ जानी । सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ॥
आखर अरथ अलंकृति नाना । छंद प्रबंध अनेक बिधाना ॥
भाव भेद रस भेद अपारा । कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥
कबित बिबेक एक नहिं मोरें । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे ॥

दो॰ भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक ।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक ॥ ९ ॥

एहि महँ रघुपति नाम उदारा । अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥
मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ । राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी । सोन न बसन बिना बर नारी ॥
सब गुन रहित कुकबि कृत बानी । राम नाम जस अंकित जानी ॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही । मधुकर सरिस संत गुनग्राही ॥
जदपि कबित रस एकउ नाही । राम प्रताप प्रकट एहि माहीं ॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा । केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा ॥
धूमउ तजइ सहज करुआई । अगरु प्रसंग सुगंध बसाई ॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी । राम कथा जग मंगल करनी ॥

छं॰ मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ॥
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी ॥
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥

दो॰ प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग ।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग ॥ १०(क) ॥

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान ।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ १०(ख) ॥

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥
जौं बरषइ बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥

दो॰ जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग ।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥ ११ ॥

जे जनमे कलिकाल कराला । करतब बायस बेष मराला ॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े । कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें ॥
बंचक भगत कहाइ राम के । किंकर कंचन कोह काम के ॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी । धींग धरमध्वज धंधक धोरी ॥
जौं अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने । थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥
समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी । कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका । मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका ॥
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा । कहँ मति मोरि निरत संसारा ॥
जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ॥
समुझत अमित राम प्रभुताई । करत कथा मन अति कदराई ॥

दो॰ सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान ।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान ॥ १२ ॥

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥
तहाँ बेद अस कारन राखा । भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा ॥
एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानंद पर धामा ॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ॥
सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपाल प्रनत अनुरागी ॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू । जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ॥
गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी । करहि पुनीत सुफल निज बानी ॥
तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा । कहिहउँ नाइ राम पद माथा ॥
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई । तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई ॥


दो॰ अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं ।
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं ॥ १३ ॥

एहि प्रकार बल मनहि देखाई । करिहउँ रघुपति कथा सुहाई ॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना । जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना ॥
चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे । पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे ॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा । जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा ॥
जे प्राकृत कबि परम सयाने । भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें । प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें ॥
होहु प्रसन्न देहु बरदानू । साधु समाज भनिति सनमानू ॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं । सो श्रम बादि बाल कबि करहीं ॥
कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा । असमंजस अस मोहि अँदेसा ॥
तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे । सिअनि सुहावनि टाट पटोरे ॥

दो॰ सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान ।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान ॥ १४(क) ॥

सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर ।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर ॥ १४(ख) ॥

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल ।
बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल ॥ १४(ग) ॥


सो॰ बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित ॥ १४(घ) ॥

बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस ।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु ॥ १४(ङ) ॥

बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी ॥ १४(च) ॥


दो॰ बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि ।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि ॥ १४(छ) ॥

पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता । जुगल पुनीत मनोहर चरिता ॥
मज्जन पान पाप हर एका । कहत सुनत एक हर अबिबेका ॥
गुर पितु मातु महेस भवानी । प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी ॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके ॥
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा ॥
अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू ॥
सो उमेस मोहि पर अनुकूला । करिहिं कथा मुद मंगल मूला ॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ । बरनउँ रामचरित चित चाऊ ॥
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती । ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती ॥
जे एहि कथहि सनेह समेता । कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता ॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी । कलि मल रहित सुमंगल भागी ॥

दो॰ सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ ॥ १५ ॥

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी । ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी ॥
सिय निंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची । कीरति जासु सकल जग माची ॥
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू । बिस्व सुखद खल कमल तुसारू ॥
दसरथ राउ सहित सब रानी । सुकृत सुमंगल मूरति मानी ॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी । करहु कृपा सुत सेवक जानी ॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता । महिमा अवधि राम पितु माता ॥

सो॰ बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद ।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ ॥ १६ ॥

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू । जाहि राम पद गूढ़ सनेहू ॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई । राम बिलोकत प्रगटेउ सोई ॥
प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना । जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ॥
राम चरन पंकज मन जासू । लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ॥
बंदउँ लछिमन पद जलजाता । सीतल सुभग भगत सुख दाता ॥
रघुपति कीरति बिमल पताका । दंड समान भयउ जस जाका ॥
सेष सहस्त्रसीस जग कारन । जो अवतरेउ भूमि भय टारन ॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर । कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर ॥
रिपुसूदन पद कमल नमामी । सूर सुसील भरत अनुगामी ॥
महावीर बिनवउँ हनुमाना । राम जासु जस आप बखाना ॥

सो॰ प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन ।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ १७ ॥

कपिपति रीछ निसाचर राजा । अंगदादि जे कीस समाजा ॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए । अधम सरीर राम जिन्ह पाए ॥
रघुपति चरन उपासक जेते । खग मृग सुर नर असुर समेते ॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे । जे बिनु काम राम के चेरे ॥
सुक सनकादि भगत मुनि नारद । जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ॥
प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा । करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥
जनकसुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुना निधान की ॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ॥
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक । चरन कमल बंदउँ सब लायक ॥
राजिवनयन धरें धनु सायक । भगत बिपति भंजन सुख दायक ॥

दो॰ गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥ १८ ॥

बंदउँ नाम राम रघुवर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू । कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥
महिमा जासु जान गनराउ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥
जान आदिकबि नाम प्रतापू । भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी । जपि जेई पिय संग भवानी ॥
हरषे हेतु हेरि हर ही को । किय भूषन तिय भूषन ती को ॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥

दो॰ बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास ॥
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास ॥ १९ ॥

आखर मधुर मनोहर दोऊ । बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ॥
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक निबाहू ॥
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके । राम लखन सम प्रिय तुलसी के ॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती । ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती ॥
नर नारायन सरिस सुभ्राता । जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन । जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के । कमठ सेष सम धर बसुधा के ॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से । जीह जसोमति हरि हलधर से ॥

दो॰ एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ ॥ २० ॥

समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी ॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥
को बड़ छोट कहत अपराधू । सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू ॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना । रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना ॥
रूप बिसेष नाम बिनु जानें । करतल गत न परहिं पहिचानें ॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें । आवत हृदयँ सनेह बिसेषें ॥
नाम रूप गति अकथ कहानी । समुझत सुखद न परति बखानी ॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी । उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ॥

दो॰ राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ॥ २१ ॥

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी । बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी ॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा । अकथ अनामय नाम न रूपा ॥
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ । नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ । होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ ॥
जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ॥
राम भगत जग चारि प्रकारा । सुकृती चारिउ अनघ उदारा ॥
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा । ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ । कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ॥

दो॰ सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन ।
नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन ॥ २२ ॥

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा । अकथ अगाध अनादि अनूपा ॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें । किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें ॥
प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की । कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की ॥
एकु दारुगत देखिअ एकू । पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू ॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें । कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें ॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी । सत चेतन धन आनँद रासी ॥
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी । सकल जीव जग दीन दुखारी ॥
नाम निरूपन नाम जतन तें । सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ॥

दो॰ निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार ।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ॥ २३ ॥

राम भगत हित नर तनु धारी । सहि संकट किए साधु सुखारी ॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा । भगत होहिं मुद मंगल बासा ॥
राम एक तापस तिय तारी । नाम कोटि खल कुमति सुधारी ॥
रिषि हित राम सुकेतुसुता की । सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी ॥
सहित दोष दुख दास दुरासा । दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा ॥
भंजेउ राम आपु भव चापू । भव भय भंजन नाम प्रतापू ॥
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किए पावन ॥ ।
निसिचर निकर दले रघुनंदन । नामु सकल कलि कलुष निकंदन ॥

दो॰ सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ ॥ २४ ॥

राम सुकंठ बिभीषन दोऊ । राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे । लोक बेद बर बिरिद बिराजे ॥
राम भालु कपि कटकु बटोरा । सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं । करहु बिचारु सुजन मन माहीं ॥
राम सकुल रन रावनु मारा । सीय सहित निज पुर पगु धारा ॥
राजा रामु अवध रजधानी । गावत गुन सुर मुनि बर बानी ॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती । बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती ॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें । नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें ॥

दो॰ ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि ।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि ॥ २५ ॥

मासपारायण, पहला विश्राम
नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी ॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी । नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥
नारद जानेउ नाम प्रतापू । जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू । भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ॥
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई । रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥

दो॰ नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥ २६ ॥

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें । द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ॥
कलि केवल मल मूल मलीना । पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥
नाम कामतरु काल कराला । सुमिरत समन सकल जग जाला ॥
राम नाम कलि अभिमत दाता । हित परलोक लोक पितु माता ॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ॥
कालनेमि कलि कपट निधानू । नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥

दो॰ राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥ २७ ॥

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा । करउँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती । जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती ॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो । निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो ॥
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं । बिनय सुनत पहिचानत प्रीती ॥
गनी गरीब ग्रामनर नागर । पंडित मूढ़ मलीन उजागर ॥
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी । नृपहि सराहत सब नर नारी ॥
साधु सुजान सुसील नृपाला । ईस अंस भव परम कृपाला ॥
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी । भनिति भगति नति गति पहिचानी ॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ । जान सिरोमनि कोसलराऊ ॥
रीझत राम सनेह निसोतें । को जग मंद मलिनमति मोतें ॥

दो॰ सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु ।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु ॥ २८(क) ॥

हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास ।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥ २८(ख) ॥

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी । सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी ॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें । सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें ॥
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही । भगति मोरि मति स्वामि सराही ॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी । रीझत राम जानि जन जी की ॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली ॥
सोइ करतूति बिभीषन केरी । सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी ॥
ते भरतहि भेंटत सनमाने । राजसभाँ रघुबीर बखाने ॥

दो॰ प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान ॥
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान ॥ २९(क) ॥

राम निकाईं रावरी है सबही को नीक ।
जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥ २९(ख) ॥

एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ॥ २९(ग) ॥

जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी । सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी ॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा । बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा । राम भगत अधिकारी चीन्हा ॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥
ते श्रोता बकता समसीला । सवँदरसी जानहिं हरिलीला ॥
जानहिं तीनि काल निज ग्याना । करतल गत आमलक समाना ॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना । कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना ॥

दो॰ मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत ।
समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥ ३०(क) ॥

श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़ ।
किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ॥ ३०(ख)

तदपि कही गुर बारहिं बारा । समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई । मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ॥
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें । तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें ॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी । करउँ कथा भव सरिता तरनी ॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि । रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ॥
रामकथा कलि पंनग भरनी । पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी ॥
रामकथा कलि कामद गाई । सुजन सजीवनि मूरि सुहाई ॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि । भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि ॥
असुर सेन सम नरक निकंदिनि । साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि ॥
संत समाज पयोधि रमा सी । बिस्व भार भर अचल छमा सी ॥
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी । जीवन मुकुति हेतु जनु कासी ॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी । तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी ॥
सिवप्रय मेकल सैल सुता सी । सकल सिद्धि सुख संपति रासी ॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी । रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ॥

दो॰ राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु ।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥ ३१ ॥

राम चरित चिंतामनि चारू । संत सुमति तिय सुभग सिंगारू ॥
जग मंगल गुन ग्राम राम के । दानि मुकुति धन धरम धाम के ॥
सदगुर ग्यान बिराग जोग के । बिबुध बैद भव भीम रोग के ॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के । बीज सकल ब्रत धरम नेम के ॥
समन पाप संताप सोक के । प्रिय पालक परलोक लोक के ॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के । कुंभज लोभ उदधि अपार के ॥
काम कोह कलिमल करिगन के । केहरि सावक जन मन बन के ॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद घन दारिद दवारि के ॥
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के । मेटत कठिन कुअंक भाल के ॥
हरन मोह तम दिनकर कर से । सेवक सालि पाल जलधर से ॥
अभिमत दानि देवतरु बर से । सेवत सुलभ सुखद हरि हर से ॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से । रामभगत जन जीवन धन से ॥
सकल सुकृत फल भूरि भोग से । जग हित निरुपधि साधु लोग से ॥
सेवक मन मानस मराल से । पावक गंग तंरग माल से ॥

दो॰ कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड ।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड ॥ ३२(क) ॥

रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु ।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु ॥ ३२(ख) ॥

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी । जेहि बिधि संकर कहा बखानी ॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई । कथाप्रबंध बिचित्र बनाई ॥
जेहि यह कथा सुनी नहिं होई । जनि आचरजु करैं सुनि सोई ॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी । नहिं आचरजु करहिं अस जानी ॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं । असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं ॥
नाना भाँति राम अवतारा । रामायन सत कोटि अपारा ॥
कलपभेद हरिचरित सुहाए । भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए ॥
करिअ न संसय अस उर आनी । सुनिअ कथा सारद रति मानी ॥

दो॰ राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार ।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार ॥ ३३ ॥

एहि बिधि सब संसय करि दूरी । सिर धरि गुर पद पंकज धूरी ॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी । करत कथा जेहिं लाग न खोरी ॥
सादर सिवहि नाइ अब माथा । बरनउँ बिसद राम गुन गाथा ॥
संबत सोरह सै एकतीसा । करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
नौमी भौम बार मधु मासा । अवधपुरीं यह चरित प्रकासा ॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं । तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥
असुर नाग खग नर मुनि देवा । आइ करहिं रघुनायक सेवा ॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना । करहिं राम कल कीरति गाना ॥

दो॰ मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर ।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर ॥ ३४ ॥

दरस परस मज्जन अरु पाना । हरइ पाप कह बेद पुराना ॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति । कहि न सकइ सारद बिमलमति ॥
राम धामदा पुरी सुहावनि । लोक समस्त बिदित अति पावनि ॥
चारि खानि जग जीव अपारा । अवध तजे तनु नहि संसारा ॥
सब बिधि पुरी मनोहर जानी । सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी ॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा । सुनत नसाहिं काम मद दंभा ॥
रामचरितमानस एहि नामा । सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ॥
मन करि विषय अनल बन जरई । होइ सुखी जौ एहिं सर परई ॥
रामचरितमानस मुनि भावन । बिरचेउ संभु सुहावन पावन ॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन । कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ॥
रचि महेस निज मानस राखा । पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा ॥
तातें रामचरितमानस बर । धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई । सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥

दो॰ जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु ।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु ॥ ३५ ॥

संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी । रामचरितमानस कबि तुलसी ॥
करइ मनोहर मति अनुहारी । सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी ॥
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू । बेद पुरान उदधि घन साधू ॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी । मधुर मनोहर मंगलकारी ॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी । सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई । सोइ मधुरता सुसीतलताई ॥
सो जल सुकृत सालि हित होई । राम भगत जन जीवन सोई ॥
मेधा महि गत सो जल पावन । सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना । सुखद सीत रुचि चारु चिराना ॥

दो॰ सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि ।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि ॥ ३६ ॥

सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा । बरनब सोइ बर बारि अगाधा ॥
राम सीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि बिलास मनोरम ॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई । जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई ॥
छंद सोरठा सुंदर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ॥
अरथ अनूप सुमाव सुभासा । सोइ पराग मकरंद सुबासा ॥
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला । ग्यान बिराग बिचार मराला ॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती । मीन मनोहर ते बहुभाँती ॥
अरथ धरम कामादिक चारी । कहब ग्यान बिग्यान बिचारी ॥
नव रस जप तप जोग बिरागा । ते सब जलचर चारु तड़ागा ॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना । ते बिचित्र जल बिहग समाना ॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई । श्रद्धा रितु बसंत सम गाई ॥
भगति निरुपन बिबिध बिधाना । छमा दया दम लता बिताना ॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना । हरि पत रति रस बेद बखाना ॥
औरउ कथा अनेक प्रसंगा । तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा ॥

दो॰ पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु ।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु ॥ ३७ ॥

जे गावहिं यह चरित सँभारे । तेइ एहि ताल चतुर रखवारे ॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी । तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥
अति खल जे बिषई बग कागा । एहिं सर निकट न जाहिं अभागा ॥
संबुक भेक सेवार समाना । इहाँ न बिषय कथा रस नाना ॥
तेहि कारन आवत हियँ हारे । कामी काक बलाक बिचारे ॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई । राम कृपा बिनु आइ न जाई ॥
कठिन कुसंग कुपंथ कराला । तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला ॥
गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥
बन बहु बिषम मोह मद माना । नदीं कुतर्क भयंकर नाना ॥

दो॰ जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ॥ ३८ ॥

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई । जातहिं नींद जुड़ाई होई ॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा । गएहुँ न मज्जन पाव अभागा ॥
करि न जाइ सर मज्जन पाना । फिरि आवइ समेत अभिमाना ॥
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा । सर निंदा करि ताहि बुझावा ॥
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही । राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही ॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई । महा घोर त्रयताप न जरई ॥
ते नर यह सर तजहिं न काऊ । जिन्ह के राम चरन भल भाऊ ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई । सो सतसंग करउ मन लाई ॥
अस मानस मानस चख चाही । भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही ॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू । उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥
चली सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ॥
सरजू नाम सुमंगल मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला ॥
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि । कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि ॥

दो॰ श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल ।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल ॥ ३९ ॥

रामभगति सुरसरितहि जाई । मिली सुकीरति सरजु सुहाई ॥
सानुज राम समर जसु पावन । मिलेउ महानदु सोन सुहावन ॥
जुग बिच भगति देवधुनि धारा । सोहति सहित सुबिरति बिचारा ॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी । राम सरुप सिंधु समुहानी ॥
मानस मूल मिली सुरसरिही । सुनत सुजन मन पावन करिही ॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा । जनु सरि तीर तीर बन बागा ॥
उमा महेस बिबाह बराती । ते जलचर अगनित बहुभाँती ॥
रघुबर जनम अनंद बधाई । भवँर तरंग मनोहरताई ॥

दो॰ बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग ।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग ॥ ४० ॥

सीय स्वयंबर कथा सुहाई । सरित सुहावनि सो छबि छाई ॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका । केवट कुसल उतर सबिबेका ॥
सुनि अनुकथन परस्पर होई । पथिक समाज सोह सरि सोई ॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी । घाट सुबद्ध राम बर बानी ॥
सानुज राम बिबाह उछाहू । सो सुभ उमग सुखद सब काहू ॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं । ते सुकृती मन मुदित नहाहीं ॥
राम तिलक हित मंगल साजा । परब जोग जनु जुरे समाजा ॥
काई कुमति केकई केरी । परी जासु फल बिपति घनेरी ॥

दो॰ समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग ।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥ ४१ ॥

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी । समय सुहावनि पावनि भूरी ॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू । सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥
बरनब राम बिबाह समाजू । सो मुद मंगलमय रितुराजू ॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू । पंथकथा खर आतप पवनू ॥
बरषा घोर निसाचर रारी । सुरकुल सालि सुमंगलकारी ॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई । बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥
सती सिरोमनि सिय गुनगाथा । सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥

दो॰ अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास ।
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास ॥ ४२ ॥

आरति बिनय दीनता मोरी । लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी । आस पिआस मनोमल हारी ॥
राम सुप्रेमहि पोषत पानी । हरत सकल कलि कलुष गलानौ ॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा । समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥
काम कोह मद मोह नसावन । बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ॥
सादर मज्जन पान किए तें । मिटहिं पाप परिताप हिए तें ॥
जिन्ह एहि बारि न मानस धोए । ते कायर कलिकाल बिगोए ॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी । फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी ॥

दो॰ मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ ॥ ४३(क) ॥

अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद ॥ ४३(ख) ॥

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा । तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥
तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥
माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं ॥
पूजहि माधव पद जलजाता । परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥

दो॰ ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग ।

कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग ॥ ४४ ॥

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥
एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥
जगबालिक मुनि परम बिबेकी । भरव्दाज राखे पद टेकी ॥
सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥
करि पूजा मुनि सुजस बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥
नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्व सबु तोरें ॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥

दो॰ संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ ४५ ॥

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू । हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥
रास नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान उपनिषद गावा ॥
संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥
आकर चारि जीव जग अहहीं । कासीं मरत परम पद लहहीं ॥
सोपि राम महिमा मुनिराया । सिव उपदेसु करत करि दाया ॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
एक राम अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा । भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥

दो॰ प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि ।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥ ४६ ॥

जैसे मिटै मोर भ्रम भारी । कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥
जागबलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारी मैं जानी ॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा ॥
तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥
महामोहु महिषेसु बिसाला । रामकथा कालिका कराला ॥
रामकथा ससि किरन समाना । संत चकोर करहिं जेहि पाना ॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी ॥

दो॰ कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद ।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥ ४७ ॥

एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं ॥
संग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥
रामकथा मुनीबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुखु मानी ॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही संभु अधिकारी पाई ॥
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥
तेहि अवसर भंजन महिभारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥
पिता बचन तजि राजु उदासी । दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥

दो॰ ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ ।
गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ ॥ ४८(क) ॥


सो॰ संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥ ४८(ख) ॥

रावन मरन मनुज कर जाचा । प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचारु न बनत बनावा ॥
एहि बिधि भए सोचबस ईसा । तेहि समय जाइ दससीसा ॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा । भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा ॥
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए । आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥
बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई ॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें । देखा प्रगट बिरह दुख ताकें ॥

दो॰ अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान ।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥ ४९ ॥

संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी ॥
जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥
चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधमा ॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥

दो॰ ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।

सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ॥ ५० ॥

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥
अस संसय मन भयउ अपारा । होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥
जासु कथा कुभंज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥

छं॰ मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं ।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि ॥

सो॰ लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु ।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥ ५१ ॥

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू । तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही ॥
जैसें जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥
चलीं सती सिव आयसु पाई । करहिं बिचारु करौं का भाई ॥
इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधी बिपरीत भलाई नाहीं ॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा । गई सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥

दो॰ पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप ।
आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप ॥ ५२ ॥

लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥
सती कपटु जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥
सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ । देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू । बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥

दो॰ राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु ।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ ५३ ॥

मैं संकर कर कहा न माना । निज अग्यानु राम पर आना ॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ॥
जाना राम सतीं दुखु पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता । आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥
फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा । सहित बंधु सिय सुंदर वेषा ॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका । अमित प्रभाउ एक तें एका ॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा ॥

दो॰ सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप ।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥ ५४ ॥

देखे जहँ तहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥
जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा ॥
पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा ॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित न बेष घनेरे ॥
सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भई सभीता ॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं ॥
बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥

दो॰ गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात ।
लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ ५५ ॥

मासपारायण, दूसरा विश्राम
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाई । कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई ॥
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना ॥
बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा ॥
हरि इच्छा भावी बलवाना । हृदयँ बिचारत संभु सुजाना ॥
सतीं कीन्ह सीता कर बेषा । सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा ॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती ॥

दो॰ परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु ।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ ५६ ॥

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥
अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा । पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥

दो॰ सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य ।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ ५७क ॥

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहि बरनी ॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥
संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥
सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुख हेतू ॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा । बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन । बैठे बट तर करि कमलासन ॥
संकर सहज सरुप सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥

दो॰ सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं ।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं ॥ ५८ ॥

नित नव सोचु सतीं उर भारा । कब जैहउँ दुख सागर पारा ॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना । पुनिपति बचनु मृषा करि जाना ॥
सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा । जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा ॥
अब बिधि अस बूझिअ नहि तोही । संकर बिमुख जिआवसि मोही ॥
कहि न जाई कछु हृदय गलानी । मन महुँ रामाहि सुमिर सयानी ॥
जौ प्रभु दीनदयालु कहावा । आरती हरन बेद जसु गावा ॥
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी । छूटउ बेगि देह यह मोरी ॥
जौं मोरे सिव चरन सनेहू । मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू ॥

दो॰ तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ ।
होइ मरनु जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥ ५९ ॥


सो॰ जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥ ५७ख ॥

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी । अकथनीय दारुन दुखु भारी ॥
बीतें संबत सहस सतासी । तजी समाधि संभु अबिनासी ॥
राम नाम सिव सुमिरन लागे । जानेउ सतीं जगतपति जागे ॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्ही । सनमुख संकर आसनु दीन्हा ॥
लगे कहन हरिकथा रसाला । दच्छ प्रजेस भए तेहि काला ॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक । दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक ॥
बड़ अधिकार दच्छ जब पावा । अति अभिमानु हृदयँ तब आवा ॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं । प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ॥

दो॰ दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग ।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥ ६० ॥


किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा । बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा ॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई । चले सकल सुर जान बनाई ॥
सतीं बिलोके ब्योम बिमाना । जात चले सुंदर बिधि नाना ॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना । सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना ॥
पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी । पिता जग्य सुनि कछु हरषानी ॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं । कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीं ॥
पति परित्याग हृदय दुखु भारी । कहइ न निज अपराध बिचारी ॥
बोली सती मनोहर बानी । भय संकोच प्रेम रस सानी ॥

दो॰ पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ ।
तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ॥ ६१ ॥

कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा । यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाई । हमरें बयर तुम्हउ बिसराई ॥
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना । तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥
भाँति अनेक संभु समुझावा । भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ । नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥

दो॰ कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि ।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥ ६२ ॥

पिता भवन जब गई भवानी । दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी ॥
सादर भलेहिं मिली एक माता । भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता ॥
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता । सतिहि बिलोकि जरे सब गाता ॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा । कतहुँ न दीख संभु कर भागा ॥
तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ । प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा । जस यह भयउ महा परितापा ॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना । सब तें कठिन जाति अवमाना ॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा । बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा ॥

दो॰ सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध ।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥ ६३ ॥

सुनहु सभासद सकल मुनिंदा । कही सुनी जिन्ह संकर निंदा ॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ । भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥
संत संभु श्रीपति अपबादा । सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई । श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥
जगदातमा महेसु पुरारी । जगत जनक सब के हितकारी ॥
पिता मंदमति निंदत तेही । दच्छ सुक्र संभव यह देही ॥
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू ॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥

दो॰ सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस ।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ ६४ ॥

समाचार सब संकर पाए । बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा । सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥
भे जगबिदित दच्छ गति सोई । जसि कछु संभु बिमुख कै होई ॥
यह इतिहास सकल जग जानी । ताते मैं संछेप बखानी ॥
सतीं मरत हरि सन बरु मागा । जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥
जब तें उमा सैल गृह जाईं । सकल सिद्धि संपति तहँ छाई ॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे । उचित बास हिम भूधर दीन्हे ॥

दो॰ सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति ।

प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ॥ ६५ ॥

सरिता सब पुनित जलु बहहीं । खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं ॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा । गिरि पर सकल करहिं अनुरागा ॥
सोह सैल गिरिजा गृह आएँ । जिमि जनु रामभगति के पाएँ ॥
नित नूतन मंगल गृह तासू । ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू ॥
नारद समाचार सब पाए । कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए ॥
सैलराज बड़ आदर कीन्हा । पद पखारि बर आसनु दीन्हा ॥
नारि सहित मुनि पद सिरु नावा । चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा ॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना । सुता बोलि मेली मुनि चरना ॥

दो॰ त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ॥
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि ॥ ६६ ॥

कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी । सुता तुम्हारि सकल गुन खानी ॥
सुंदर सहज सुसील सयानी । नाम उमा अंबिका भवानी ॥
सब लच्छन संपन्न कुमारी । होइहि संतत पियहि पिआरी ॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता । एहि तें जसु पैहहिं पितु माता ॥
होइहि पूज्य सकल जग माहीं । एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं ॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा । त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा ॥
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी । सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी ॥
अगुन अमान मातु पितु हीना । उदासीन सब संसय छीना ॥

दो॰ जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष ॥
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख ॥ ६७ ॥

सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी । दुख दंपतिहि उमा हरषानी ॥
नारदहुँ यह भेदु न जाना । दसा एक समुझब बिलगाना ॥
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना । पुलक सरीर भरे जल नैना ॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा । उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा ॥
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई । सखी उछँग बैठी पुनि जाई ॥
झूठि न होइ देवरिषि बानी । सोचहि दंपति सखीं सयानी ॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ । कहहु नाथ का करिअ उपाऊ ॥

दो॰ कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार ।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार ॥ ६८ ॥

तदपि एक मैं कहउँ उपाई । होइ करै जौं दैउ सहाई ॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं । मिलहि उमहि तस संसय नाहीं ॥
जे जे बर के दोष बखाने । ते सब सिव पहि मैं अनुमाने ॥
जौं बिबाहु संकर सन होई । दोषउ गुन सम कह सबु कोई ॥
जौं अहि सेज सयन हरि करहीं । बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं ॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं । तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं ॥
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई । सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई । रबि पावक सुरसरि की नाई ॥

दो॰ जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान ।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान ॥ ६९ ॥

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना । कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें । ईस अनीसहि अंतरु तैसें ॥
संभु सहज समरथ भगवाना । एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना ॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू । आसुतोष पुनि किएँ कलेसू ॥
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी । भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी ॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं । एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं ॥
बर दायक प्रनतारति भंजन । कृपासिंधु सेवक मन रंजन ॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधे । लहिअ न कोटि जोग जप साधें ॥

दो॰ अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस ।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस ॥ ७० ॥

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ । आगिल चरित सुनहु जस भयऊ ॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना । नाथ न मैं समुझे मुनि बैना ॥
जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा । करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा ॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी । कंत उमा मम प्रानपिआरी ॥
जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू । गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू ॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू । जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू ॥
अस कहि परि चरन धरि सीसा । बोले सहित सनेह गिरीसा ॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं । नारद बचनु अन्यथा नाहीं ॥

दो॰ प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान ।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान ॥ ७१ ॥

अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू । तौ अस जाइ सिखावन देहू ॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू । आन उपायँ न मिटहि कलेसू ॥
नारद बचन सगर्भ सहेतू । सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू ॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका । सबहि भाँति संकरु अकलंका ॥
सुनि पति बचन हरषि मन माहीं । गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं ॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी । सहित सनेह गोद बैठारी ॥
बारहिं बार लेति उर लाई । गदगद कंठ न कछु कहि जाई ॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी । मातु सुखद बोलीं मृदु बानी ॥

दो॰ सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि ।
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि ॥ ७२ ॥

करहि जाइ तपु सैलकुमारी । नारद कहा सो सत्य बिचारी ॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा । तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा ॥
तपबल रचइ प्रपंच बिधाता । तपबल बिष्नु सकल जग त्राता ॥
तपबल संभु करहिं संघारा । तपबल सेषु धरइ महिभारा ॥
तप अधार सब सृष्टि भवानी । करहि जाइ तपु अस जियँ जानी ॥
सुनत बचन बिसमित महतारी । सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी ॥
मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई । चलीं उमा तप हित हरषाई ॥
प्रिय परिवार पिता अरु माता । भए बिकल मुख आव न बाता ॥

दो॰ बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ ॥
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ ॥ ७३ ॥

उर धरि उमा प्रानपति चरना । जाइ बिपिन लागीं तपु करना ॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू । पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू ॥
नित नव चरन उपज अनुरागा । बिसरी देह तपहिं मनु लागा ॥
संबत सहस मूल फल खाए । सागु खाइ सत बरष गवाँए ॥
कछु दिन भोजनु बारि बतासा । किए कठिन कछु दिन उपबासा ॥
बेल पाती महि परइ सुखाई । तीनि सहस संबत सोई खाई ॥
पुनि परिहरे सुखानेउ परना । उमहि नाम तब भयउ अपरना ॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा । ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥

दो॰ भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिजाकुमारि ।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि ॥ ७४ ॥

अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी । भउ अनेक धीर मुनि ग्यानी ॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी । सत्य सदा संतत सुचि जानी ॥
आवै पिता बोलावन जबहीं । हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं ॥
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा । जानेहु तब प्रमान बागीसा ॥
सुनत गिरा बिधि गगन बखानी । पुलक गात गिरिजा हरषानी ॥
उमा चरित सुंदर मैं गावा । सुनहु संभु कर चरित सुहावा ॥
जब तें सती जाइ तनु त्यागा । तब सें सिव मन भयउ बिरागा ॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा । जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा ॥

दो॰ चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम ।
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम ॥ ७५ ॥

कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना । कतहुँ राम गुन करहिं बखाना ॥
जदपि अकाम तदपि भगवाना । भगत बिरह दुख दुखित सुजाना ॥
एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती । नित नै होइ राम पद प्रीती ॥
नैमु प्रेमु संकर कर देखा । अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा ॥
प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला । रूप सील निधि तेज बिसाला ॥
बहु प्रकार संकरहि सराहा । तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा ॥
बहुबिधि राम सिवहि समुझावा । पारबती कर जन्मु सुनावा ॥
अति पुनीत गिरिजा कै करनी । बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी ॥

दो॰ अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु ।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु ॥ ७६ ॥


कह सिव जदपि उचित अस नाहीं । नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी । बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी । अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥
प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना । भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ । अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥
अंतरधान भए अस भाषी । संकर सोइ मूरति उर राखी ॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए । बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥

दो॰ पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु ।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु ॥ ७७ ॥

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी । मूरतिमंत तपस्या जैसी ॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी । करहु कवन कारन तपु भारी ॥
केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू । हम सन सत्य मरमु किन कहहू ॥
कहत बचत मनु अति सकुचाई । हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई ॥
मनु हठ परा न सुनइ सिखावा । चहत बारि पर भीति उठावा ॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना । बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना ॥
देखहु मुनि अबिबेकु हमारा । चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥

दो॰ सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तब देह ।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह ॥ ७८ ॥

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई । तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला । कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥
नारद सिख जे सुनहिं नर नारी । अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी ॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा । आपु सरिस सबही चह कीन्हा ॥
तेहि कें बचन मानि बिस्वासा । तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा ॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली । अकुल अगेह दिगंबर ब्याली ॥
कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ । भल भूलिहु ठग के बौराएँ ॥
पंच कहें सिवँ सती बिबाही । पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही ॥

दो॰ अब सुख सोवत सोचु नहि भीख मागि भव खाहिं ।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं ॥ ७९ ॥

अजहूँ मानहु कहा हमारा । हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा ॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला । गावहिं बेद जासु जस लीला ॥
दूषन रहित सकल गुन रासी । श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी ॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी । सुनत बिहसि कह बचन भवानी ॥
सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा । हठ न छूट छूटै बरु देहा ॥
कनकउ पुनि पषान तें होई । जारेहुँ सहजु न परिहर सोई ॥
नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही । सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही ॥

दो॰ महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम ।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥ ८० ॥

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा । सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा ॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा । को गुन दूषन करै बिचारा ॥
जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी । रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी ॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं । बर कन्या अनेक जग माहीं ॥
जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहि सत बार महेसू ॥
मैं पा परउँ कहइ जगदंबा । तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा ॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी । जय जय जगदंबिके भवानी ॥

दो॰ तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु ।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु ॥ ८१ ॥

जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए । करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए ॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई । कथा उमा कै सकल सुनाई ॥
भए मगन सिव सुनत सनेहा । हरषि सप्तरिषि गवने गेहा ॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना । लगे करन रघुनायक ध्याना ॥
तारकु असुर भयउ तेहि काला । भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥
तेंहि सब लोक लोकपति जीते । भए देव सुख संपति रीते ॥
अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि बिबिध लराई ॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे । देखे बिधि सब देव दुखारे ॥

दो॰ सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ ।
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ ॥ ८२ ॥

मोर कहा सुनि करहु उपाई । होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा । जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥
तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी । सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥
जदपि अहइ असमंजस भारी । तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं । करै छोभु संकर मन माहीं ॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई । करवाउब बिबाहु बरिआई ॥
एहि बिधि भलेहि देवहित होई । मर अति नीक कहइ सबु कोई ॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू । प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥

दो॰ सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार ।
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार ॥ ८३ ॥

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा । श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥
पर हित लागि तजइ जो देही । संतत संत प्रसंसहिं तेही ॥
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा । सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा ॥
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा । निज बस कीन्ह सकल संसारा ॥
कोपेउ जबहि बारिचरकेतू । छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना । धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥
सदाचार जप जोग बिरागा । सभय बिबेक कटकु सब भागा ॥

छं॰ भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे ।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे ॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा ।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा ॥

दो॰ जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम ।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम ॥ ८४ ॥

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा । लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई । संगम करहिं तलाव तलाई ॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी । को कहि सकइ सचेतन करनी ॥
पसु पच्छी नभ जल थलचारी । भए कामबस समय बिसारी ॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका । निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला । प्रेत पिसाच भूत बेताला ॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी । सदा काम के चेरे जानी ॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी । तेपि कामबस भए बियोगी ॥

छं॰ भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै ।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं ।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं ॥

सो॰ धरी न काहूँ धिर सबके मन मनसिज हरे ।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ ॥ ८५ ॥


उभय घरी अस कौतुक भयऊ । जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू । भयउ जथाथिति सबु संसारू ॥
भए तुरत सब जीव सुखारे । जिमि मद उतरि गएँ मतवारे ॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना । दुराधरष दुर्गम भगवाना ॥
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई । मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा । कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥
बन उपबन बापिका तड़ागा । परम सुभग सब दिसा बिभागा ॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा । देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा ॥

छं॰ जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही ।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही ॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा ।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥

दो॰ सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत ।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत ॥ ८६ ॥

देखि रसाल बिटप बर साखा । तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा ॥
सुमन चाप निज सर संधाने । अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने ॥
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे । छुटि समाधि संभु तब जागे ॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी । नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका । भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका ॥
तब सिवँ तीसर नयन उघारा । चितवत कामु भयउ जरि छारा ॥
हाहाकार भयउ जग भारी । डरपे सुर भए असुर सुखारी ॥
समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी । भए अकंटक साधक जोगी ॥

छं॰ जोगि अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई ।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई ।
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही ।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही ॥

दो॰ अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु ।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ॥ ८७ ॥

जब जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महिभारा ॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥
रति गवनी सुनि संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥
देवन्ह समाचार सब पाए । ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए ॥
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता । गए जहाँ सिव कृपानिकेता ॥
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा ॥
बोले कृपासिंधु बृषकेतू । कहहु अमर आए केहि हेतू ॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी । तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी ॥

दो॰ सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु ।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥ ८८ ॥

यह उत्सव देखिअ भरि लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन ।
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा । कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा ॥
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साई ॥
अवसरु जानि सप्तरिषि आए । तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥
प्रथम गए जहँ रही भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥

दो॰ कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस ।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥ ८९ ॥

मासपारायण,तीसरा विश्राम
सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी । उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी ॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा । अब लगि संभु रहे सबिकारा ॥
हमरें जान सदा सिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी । प्रीति समेत कर्म मन बानी ॥
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा । सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ॥
तात अनल कर सहज सुभाऊ । हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई । असि मन्मथ महेस की नाई ॥

दो॰ हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास ॥
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास ॥ ९० ॥

सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा । मदन दहन सुनि अति दुखु पावा ॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना । सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना ॥
हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई । सादर मुनिबर लिए बोलाई ॥
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई । बेगि बेदबिधि लगन धराई ॥
पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही । गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ॥
जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती । बाचत प्रीति न हृदयँ समाती ॥
लगन बाचि अज सबहि सुनाई । हरषे मुनि सब सुर समुदाई ॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे । मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे ॥

दो॰ लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान ।
होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान ॥ ९१ ॥


सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा । जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला । तन बिभूति पट केहरि छाला ॥
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा । नयन तीनि उपबीत भुजंगा ॥
गरल कंठ उर नर सिर माला । असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा । चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा ॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं । बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥
बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता । चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता ॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा । नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥

दो॰ बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज ।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥ ९२ ॥

बर अनुहारि बरात न भाई । हँसी करैहहु पर पुर जाई ॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने । निज निज सेन सहित बिलगाने ॥
मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं । हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं ॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे । भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे ॥
सिव अनुसासन सुनि सब आए । प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए ॥
नाना बाहन नाना बेषा । बिहसे सिव समाज निज देखा ॥
कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू । बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू ॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना । रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना ॥

छं॰ तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें ।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें ॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै ।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै ॥

सो॰ नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब ।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ॥ ९३ ॥

जस दूलहु तसि बनी बराता । कौतुक बिबिध होहिं मग जाता ॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना । अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं । लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं ॥
बन सागर सब नदीं तलावा । हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा ॥
कामरूप सुंदर तन धारी । सहित समाज सहित बर नारी ॥
गए सकल तुहिनाचल गेहा । गावहिं मंगल सहित सनेहा ॥
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए । जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई । लागइ लघु बिरंचि निपुनाई ॥

छं॰ लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही ।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही ॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं ॥
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं ॥

दो॰ जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ ।
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ ॥ ९४ ॥

नगर निकट बरात सुनि आई । पुर खरभरु सोभा अधिकाई ॥
करि बनाव सजि बाहन नाना । चले लेन सादर अगवाना ॥
हियँ हरषे सुर सेन निहारी । हरिहि देखि अति भए सुखारी ॥
सिव समाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सब भागे ॥
धरि धीरजु तहँ रहे सयाने । बालक सब लै जीव पराने ॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता । कहहिं बचन भय कंपित गाता ॥
कहिअ काह कहि जाइ न बाता । जम कर धार किधौं बरिआता ॥
बरु बौराह बसहँ असवारा । ब्याल कपाल बिभूषन छारा ॥

छं॰ तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा ।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा ॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही ।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही ॥

दो॰ समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं ।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं ॥ ९५ ॥

लै अगवान बरातहि आए । दिए सबहि जनवास सुहाए ॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी । संग सुमंगल गावहिं नारी ॥
कंचन थार सोह बर पानी । परिछन चली हरहि हरषानी ॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा । अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा ॥
भागि भवन पैठीं अति त्रासा । गए महेसु जहाँ जनवासा ॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी । लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी ॥
अधिक सनेहँ गोद बैठारी । स्याम सरोज नयन भरे बारी ॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा । तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा ॥

छं॰ कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई ।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई ॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं ॥
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं ॥

दो॰ भई बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि ।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि ॥ ९६ ॥

नारद कर मैं काह बिगारा । भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा ॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा । बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा ॥
साचेहुँ उन्ह के मोह न माया । उदासीन धनु धामु न जाया ॥
पर घर घालक लाज न भीरा । बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा ॥
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी । बोली जुत बिबेक मृदु बानी ॥
अस बिचारि सोचहि मति माता । सो न टरइ जो रचइ बिधाता ॥
करम लिखा जौ बाउर नाहू । तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥

तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका । मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका ॥

छं॰ जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं ।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं ॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं ॥
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं ॥

दो॰ तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत ।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत ॥ ९७ ॥

तब नारद सबहि समुझावा । पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा ॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी । जगदंबा तव सुता भवानी ॥
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि । सदा संभु अरधंग निवासिनि ॥
जग संभव पालन लय कारिनि । निज इच्छा लीला बपु धारिनि ॥
जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई । नामु सती सुंदर तनु पाई ॥
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं । कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं ॥
एक बार आवत सिव संगा । देखेउ रघुकुल कमल पतंगा ॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा । भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥

छं॰ सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं ।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं ॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया ।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया ॥

दो॰ सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद ।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ॥ ९८ ॥

तब मयना हिमवंतु अनंदे । पुनि पुनि पारबती पद बंदे ॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने । नगर लोग सब अति हरषाने ॥
लगे होन पुर मंगलगाना । सजे सबहि हाटक घट नाना ॥
भाँति अनेक भई जेवराना । सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥
सो जेवनार कि जाइ बखानी । बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥
सादर बोले सकल बराती । बिष्नु बिरंचि देव सब जाती ॥
बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा । लागे परुसन निपुन सुआरा ॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी । लगीं देन गारीं मृदु बानी ॥

छं॰ गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं ।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं ॥
जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो ।
अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो ॥

दो॰ बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ ॥ ९९ ॥

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे । सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥
बेदी बेद बिधान सँवारी । सुभग सुमंगल गावहिं नारी ॥
सिंघासनु अति दिब्य सुहावा । जाइ न बरनि बिरंचि बनावा ॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई । हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥
बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई । करि सिंगारु सखीं लै आई ॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे । बरनै छबि अस जग कबि को है ॥
जगदंबिका जानि भव भामा । सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ॥
सुंदरता मरजाद भवानी । जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी ॥

छं॰ कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा ।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा ॥
छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ ॥
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥

दो॰ मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि ।

कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि ॥ १०० ॥


जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई । महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी । भवहि समरपीं जानि भवानी ॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा । हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं । जय जय जय संकर सुर करहीं ॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना । सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू । सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥
दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥

छं॰ दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो ।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो ।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥

दो॰ नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु ।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥ १०१ ॥

बहु बिधि संभु सास समुझाई । गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही । लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥
करेहु सदा संकर पद पूजा । नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥
बचन कहत भरे लोचन बारी । बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं । पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी । धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना । परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी । जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥

छं॰ जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं ।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई ॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले ।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥

दो॰ चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु ।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥ १०२ ॥

तुरत भवन आए गिरिराई । सकल सैल सर लिए बोलाई ॥
आदर दान बिनय बहुमाना । सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए । सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥
जगत मातु पितु संभु भवानी । तेही सिंगारु न कहउँ बखानी ॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा । गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥

छं॰ जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा ।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं ।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥

दो॰ चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु ।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥ १०३ ॥

संभु चरित सुनि सरस सुहावा । भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी । नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी । दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा । तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं । रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू । राम भगत कर लच्छन एहू ॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी । बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई । को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥

दो॰ प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार ।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥ १०४ ॥

मैं जाना तुम्हार गुन सीला । कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें । कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥
राम चरित अति अमित मुनिसा । कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥
सारद दारुनारि सम स्वामी । रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी । कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा । बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥

दो॰ सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद ।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद ॥ १०५ ॥

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं । ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला । नित नूतन सुंदर सब काला ॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया । सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ । तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला । बैठै सहजहिं संभु कृपाला ॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना । नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी । आननु सरद चंद छबि हारी ॥

दो॰ जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल ।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥ १०६ ॥

बैठे सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥
पारबती भल अवसरु जानी । गई संभु पहिं मातु भवानी ॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा । बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥
बैठीं सिव समीप हरषाई । पूरुब जन्म कथा चित आई ॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी । बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥
कथा जो सकल लोक हितकारी । सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी । त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥
चर अरु अचर नाग नर देवा । सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥

दो॰ प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥ १०७ ॥

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी । जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना । कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई । सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी । हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी । कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥
सेस सारदा बेद पुराना । सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती । सादर जपहु अनँग आराती ॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई । की अज अगुन अलखगति कोई ॥

दो॰ जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि ।
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥ १०८ ॥

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ । कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू । जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥
मै बन दीखि राम प्रभुताई । अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा । सो फलु भली भाँति हम पावा ॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे । करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें ॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा । नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं । रामकथा पर रुचि मन माहीं ॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा । भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥

दो॰ बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि ।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ॥ १०९ ॥

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी । दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं । आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥
अति आरति पूछउँ सुरराया । रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी । निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा । बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो दूषन काहीं ॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहहु संकर सुखलीला ॥

दो॰ बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम ।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥ ११० ॥

पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी । जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा । पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥
औरउ राम रहस्य अनेका । कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई । सोउ दयाल राखहु जनि गोई ॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना । आन जीव पाँवर का जाना ॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई । छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥
हर हियँ रामचरित सब आए । प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा । परमानंद अमित सुख पावा ॥

दो॰ मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह ।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥ १११ ॥

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू । सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥
मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी । हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी । तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा । सकल लोक जग पावनि गंगा ॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी । कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥

दो॰ रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं ।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥ ११२ ॥

तदपि असंका कीन्हिहु सोई । कहत सुनत सब कर हित होई ॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना । श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा । लोचन मोरपंख कर लेखा ॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला । जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी । जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना । जीह सो दादुर जीह समाना ॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती । सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला । सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥

दो॰ रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि ।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥ ११३ ॥


रामकथा सुंदर कर तारी । संसय बिहग उडावनिहारी ॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी । सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥
राम नाम गुन चरित सुहाए । जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥
जथा अनंत राम भगवाना । तथा कथा कीरति गुन नाना ॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी । कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी ॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई । सुखद संतसंमत मोहि भाई ॥
एक बात नहि मोहि सोहानी । जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥
तुम जो कहा राम कोउ आना । जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥

दो॰ कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच ।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥ ११४ ॥

अग्य अकोबिद अंध अभागी । काई बिषय मुकर मन लागी ॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी । सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी ॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी । जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना । राम रूप देखहिं किमि दीना ॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका । जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं । तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं ॥
बातुल भूत बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना । तिन् कर कहा करिअ नहिं काना ॥

सो॰ अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद ।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥ ११५ ॥

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा । गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अरुप अलख अज जोई । भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें । जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा । तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा ॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा । नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥
सहज प्रकासरुप भगवाना । नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना । जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना । परमानन्द परेस पुराना ॥

दो॰ पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ ॥ ११६ ॥

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी । प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥
जथा गगन घन पटल निहारी । झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ । प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा । नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥
बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एक तें एक सचेता ॥
सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
जासु सत्यता तें जड माया । भास सत्य इव मोह सहाया ॥

दो॰ रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि ।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥ ११७ ॥

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई । जदपि असत्य देत दुख अहई ॥
जौं सपनें सिर काटै कोई । बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई । गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा । मति अनुमानि निगम अस गावा ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी । महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥

दो॰ जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥ ११८ ॥

कासीं मरत जंतु अवलोकी । जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अंतरजामी ॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं । जनम अनेक रचित अघ दहहीं ॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं । भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥
राम सो परमातमा भवानी । तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥
अस संसय आनत उर माहीं । ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं ॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना । मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती । दारुन असंभावना बीती ॥

दो॰ पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि ।
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥ ११९ ॥

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी । मिटा मोह सरदातप भारी ॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ । राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा । सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा ॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी । जदपि सहज जड नारि अयानी ॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू । जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी । सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू । मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता । रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥

दो॰ हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥ १२०(क) ॥

नवान्हपारायन,पहला विश्राम
मासपारायण, चौथा विश्राम

सो॰ सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल ।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥ १२०(ख) ॥

सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब ।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ ॥ १२०(ग) ॥

हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित ।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥ १२०(घ ॥

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए । बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई । इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी । मत हमार अस सुनहि सयानी ॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना । जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही । समुझि परइ जस कारन मोही ॥
जब जब होइ धरम कै हानी । बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी । सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा । हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥

दो॰ असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु ।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु ॥ १२१ ॥

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं । कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ॥
राम जनम के हेतु अनेका । परम बिचित्र एक तें एका ॥
जनम एक दुइ कहउँ बखानी । सावधान सुनु सुमति भवानी ॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ । जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई । तामस असुर देह तिन्ह पाई ॥
कनककसिपु अरु हाटक लोचन । जगत बिदित सुरपति मद मोचन ॥
बिजई समर बीर बिख्याता । धरि बराह बपु एक निपाता ॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा । जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा ॥

दो॰ भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान ।
कुंभकरन रावण सुभट सुर बिजई जग जान ॥ १२२ ।

मुकुत न भए हते भगवाना । तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना ॥
एक बार तिन्ह के हित लागी । धरेउ सरीर भगत अनुरागी ॥
कस्यप अदिति तहाँ पितु माता । दसरथ कौसल्या बिख्याता ॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा । चरित्र पवित्र किए संसारा ॥
एक कलप सुर देखि दुखारे । समर जलंधर सन सब हारे ॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा । दनुज महाबल मरइ न मारा ॥
परम सती असुराधिप नारी । तेहि बल ताहि न जितहिं पुरारी ॥

दो॰ छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह ॥
जब तेहि जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह ॥ १२३ ॥

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना । कौतुकनिधि कृपाल भगवाना ॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ । रन हति राम परम पद दयऊ ॥
एक जनम कर कारन एहा । जेहि लागि राम धरी नरदेहा ॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी । सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी ॥
नारद श्राप दीन्ह एक बारा । कलप एक तेहि लगि अवतारा ॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी । नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानि ॥
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा । का अपराध रमापति कीन्हा ॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी । मुनि मन मोह आचरज भारी ॥

दो॰ बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ ॥ १२४(क) ॥


सो॰ कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु ।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद ॥ १२४(ख) ॥

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि । बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा । देखि देवरिषि मन अति भावा ॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा । भयउ रमापति पद अनुरागा ॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी । सहज बिमल मन लागि समाधी ॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना । कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू । चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा । चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥
जे कामी लोलुप जग माहीं । कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥

दो॰ सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज ।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥ १२५ ॥

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ । निज मायाँ बसंत निरमयऊ ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा । कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा ॥
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी । काम कृसानु बढ़ावनिहारी ॥
रंभादिक सुरनारि नबीना । सकल असमसर कला प्रबीना ॥
करहिं गान बहु तान तरंगा । बहुबिधि क्रीड़हि पानि पतंगा ॥
देखि सहाय मदन हरषाना । कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना ॥
काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी । निज भयँ डरेउ मनोभव पापी ॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासु । बड़ रखवार रमापति जासू ॥

दो॰ सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन ।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन ॥ १२६ ॥

भयउ न नारद मन कछु रोषा । कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई । गयउ मदन तब सहित सहाई ॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी । सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा । मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥
तब नारद गवने सिव पाहीं । जिता काम अहमिति मन माहीं ॥
मार चरित संकरहिं सुनाए । अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं । जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं ॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ । चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ ॥

दो॰ संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान ।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥ १२७ ॥

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई । करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए । तब बिरंचि के लोक सिधाए ॥
एक बार करतल बर बीना । गावत हरि गुन गान प्रबीना ॥
छीरसिंधु गवने मुनिनाथा । जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा ॥
हरषि मिले उठि रमानिकेता । बैठे आसन रिषिहि समेता ॥
बोले बिहसि चराचर राया । बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया ॥
काम चरित नारद सब भाषे । जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे ॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया । जेहि न मोह अस को जग जाया ॥

दो॰ रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान ।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान ॥ १२८ ॥

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें । ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके ॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा । तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा ॥
नारद कहेउ सहित अभिमाना । कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी । उर अंकुरेउ गरब तरु भारी ॥
बेगि सो मै डारिहउँ उखारी । पन हमार सेवक हितकारी ॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई । अवसि उपाय करबि मै सोई ॥
तब नारद हरि पद सिर नाई । चले हृदयँ अहमिति अधिकाई ॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी । सुनहु कठिन करनी तेहि केरी ॥

दो॰ बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार ।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार ॥ १२९ ॥

बसहिं नगर सुंदर नर नारी । जनु बहु मनसिज रति तनुधारी ॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा । अगनित हय गय सेन समाजा ॥
सत सुरेस सम बिभव बिलासा । रूप तेज बल नीति निवासा ॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी । श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी ॥
सोइ हरिमाया सब गुन खानी । सोभा तासु कि जाइ बखानी ॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला । आए तहँ अगनित महिपाला ॥
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ । पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए । करि पूजा नृप मुनि बैठाए ॥

दो॰ आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि ।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥ १३० ॥

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी । बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने । हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई । समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥
सेवहिं सकल चराचर ताही । बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे । कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं । नारद चले सोच मन माहीं ॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी । जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला । हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥

दो॰ एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल ।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥ १३१ ॥

हरि सन मागौं सुंदरताई । होइहि जात गहरु अति भाई ॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ । एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला । प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने । होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥
अति आरति कहि कथा सुनाई । करहु कृपा करि होहु सहाई ॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही । आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा । करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥
निज माया बल देखि बिसाला । हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥

दो॰ जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार ।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥ १३२ ॥

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी । बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ । कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा । समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई । जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥
निज निज आसन बैठे राजा । बहु बनाव करि सहित समाजा ॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें । मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना । दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा । नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥


दो॰ रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥ १३३ ॥

जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई । हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ । बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई । नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी । इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ । हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी । समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा । सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥
मर्कट बदन भयंकर देही । देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥

दो॰ सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल ।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ १३४ ॥

जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला । कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥
तब हर गन बोले मुसुकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥

दो॰ होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥ १३५ ॥

पुनि जल दीख रूप निज पावा । तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥
फरकत अधर कोप मन माहीं । सपदी चले कमलापति पाहीं ॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोर उपहास कराई ॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी । संग रमा सोइ राजकुमारी ॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया बस न रहा मन बोधा ॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी । तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु । सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥

दो॰ असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु ।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ १३६ ॥

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई । भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू । बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू । अति असंक मन सदा उछाहू ॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा । अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥
भले भवन अब बायन दीन्हा । पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी । नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥

दो॰ श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि ।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥ १३७ ॥

जब हरि माया दूरि निवारी । नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना । गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला । मम इच्छा कह दीनदयाला ॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे । कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई । अब न तुम्हहि माया निअराई ॥

दो॰ बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥ १३८ ॥

हर गन मुनिहि जात पथ देखी । बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥
अति सभीत नारद पहिं आए । गहि पद आरत बचन सुनाए ॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया । बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला । बोले नारद दीनदयाला ॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ । बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ । धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा । होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई । भए निसाचर कालहि पाई ॥

दो॰ एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार ।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥ १३९ ॥

एहि बिधि जनम करम हरि केरे । सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं । चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई । परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने । करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता । कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥
रामचंद्र के चरित सुहाए । कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी । हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥ सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥

सो॰ सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥ १४० ॥

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी । कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा । ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा । बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥
जासु चरित अवलोकि भवानी । सती सरीर रहिहु बौरानी ॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी । तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा । सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी । सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू । सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥

दो॰ सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥ १४१ ॥

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा । जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥
दंपति धरम आचरन नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू । ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही । बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी । जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना । तत्व बिचार निपुन भगवाना ॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला । प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥

सो॰ होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन ।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥ १४२ ॥

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा । नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता । अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा । तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा । ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा । हरषि नहाने निरमल नीरा ॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी । धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए । मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना । सत समाज नित सुनहिं पुराना ।

दो॰ द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग ।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥ १४३ ॥

करहिं अहार साक फल कंदा । सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे । बारि अधार मूल फल त्यागे ॥
उर अभिलाष निंरंतर होई । देखा नयन परम प्रभु सोई ॥
अगुन अखंड अनंत अनादी । जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा । निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई । भगत हेतु लीलातनु गहई ॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा । तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥

दो॰ एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार ।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार ॥ १४४ ॥

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ । ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि तप देखि अपारा । मनु समीप आए बहु बारा ॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा । तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी । गति अनन्य तापस नृप रानी ॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी । परम गभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई । श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए । मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥

दो॰ श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात ।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥ १४५ ॥

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु । बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक । प्रनतपाल सचराचर नायक ॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू । तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं । जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा । सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन । कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे । मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना । बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥

दो॰ नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम ।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥ १४६ ॥

सरद मयंक बदन छबि सींवा । चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा । बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी । चितवनि ललित भावँती जी की ॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी । तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा । कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला । पदिक हार भूषन मनिजाला ॥
केहरि कंधर चारु जनेउ । बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥
करि कर सरि सुभग भुजदंडा । कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥

दो॰ तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥ १४७ ॥

पद राजीव बरनि नहि जाहीं । मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥
बाम भाग सोभति अनुकूला । आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई । राम बाम दिसि सीता सोई ॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी । एकटक रहे नयन पट रोकी ॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा । तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी । परे दंड इव गहि पद पानी ॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा । तुरत उठाए करुनापुंजा ॥

दो॰ बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि ।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥ १४८ ॥

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी । धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥
एक लालसा बड़ि उर माही । सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं । अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई । बहु संपति मागत सकुचाई ॥
तासु प्रभा जान नहिं सोई । तथा हृदयँ मम संसय होई ॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि । मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥

दो॰ दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥ १४९ ॥

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई । नृप तव तनय होब मैं आई ॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें । देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा । सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई । जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी । ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥
अस समुझत मन संसय होई । कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं । जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥

दो॰ सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥ १५० ॥

सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना । कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं । मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें । कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी । अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ । मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना । मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ । एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥

सो॰ तहँ करि भोग बिसाल तात गउँ कछु काल पुनि ।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत ॥ १५१ ॥

इच्छामय नरबेष सँवारें । होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारे ॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता । करिहउँ चरित भगत सुखदाता ॥
जे सुनि सादर नर बड़भागी । भव तरिहहिं ममता मद त्यागी ॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया । सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ॥
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा । सत्य सत्य पन सत्य हमारा ॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना । अंतरधान भए भगवाना ॥
दंपति उर धरि भगत कृपाला । तेहिं आश्रम निवसे कछु काला ॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा । जाइ कीन्ह अमरावति बासा ॥

दो॰ यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु ।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु ॥ १५२ ॥

मासपारायण,पाँचवाँ विश्राम

सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी । जो गिरिजा प्रति संभु बखानी ॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू । सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू ॥
धरम धुरंधर नीति निधाना । तेज प्रताप सील बलवाना ॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा । सब गुन धाम महा रनधीरा ॥

राज धनी जो जेठ सुत आही । नाम प्रतापभानु अस ताही ॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा । भुजबल अतुल अचल संग्रामा ॥
भाइहि भाइहि परम समीती । सकल दोष छल बरजित प्रीती ॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा । हरि हित आपु गवन बन कीन्हा ॥

दो॰ जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस ।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस ॥ १५३ ॥

नृप हितकारक सचिव सयाना । नाम धरमरुचि सुक्र समाना ॥
सचिव सयान बंधु बलबीरा । आपु प्रतापपुंज रनधीरा ॥
सेन संग चतुरंग अपारा । अमित सुभट सब समर जुझारा ॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना । अरु बाजे गहगहे निसाना ॥
बिजय हेतु कटकई बनाई । सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई ॥
जँह तहँ परीं अनेक लराईं । जीते सकल भूप बरिआई ॥
सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे । लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हें ॥
सकल अवनि मंडल तेहि काला । एक प्रतापभानु महिपाला ॥

दो॰ स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु ।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु ॥ १५४ ॥

भूप प्रतापभानु बल पाई । कामधेनु भै भूमि सुहाई ॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी । धरमसील सुंदर नर नारी ॥
सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती । नृप हित हेतु सिखव नित नीती ॥
गुर सुर संत पितर महिदेवा । करइ सदा नृप सब कै सेवा ॥
भूप धरम जे बेद बखाने । सकल करइ सादर सुख माने ॥
दिन प्रति देह बिबिध बिधि दाना । सुनहु सास्त्र बर बेद पुराना ॥
नाना बापीं कूप तड़ागा । सुमन बाटिका सुंदर बागा ॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए । सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए ॥

दो॰ जँह लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग ।
बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग ॥ १५५ ॥

हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना । भूप बिबेकी परम सुजाना ॥
करइ जे धरम करम मन बानी । बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी ॥
चढ़ि बर बाजि बार एक राजा । मृगया कर सब साजि समाजा ॥
बिंध्याचल गभीर बन गयऊ । मृग पुनीत बहु मारत भयऊ ॥
फिरत बिपिन नृप दीख बराहू । जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥
बड़ बिधु नहि समात मुख माहीं । मनहुँ क्रोधबस उगिलत नाहीं ॥
कोल कराल दसन छबि गाई । तनु बिसाल पीवर अधिकाई ॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ । चकित बिलोकत कान उठाएँ ॥

दो॰ नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु ।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ॥ १५६ ॥

आवत देखि अधिक रव बाजी । चलेउ बराह मरुत गति भाजी ॥
तुरत कीन्ह नृप सर संधाना । महि मिलि गयउ बिलोकत बाना ॥
तकि तकि तीर महीस चलावा । करि छल सुअर सरीर बचावा ॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा । रिस बस भूप चलेउ संग लागा ॥
गयउ दूरि घन गहन बराहू । जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू ॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू । तदपि न मृग मग तजइ नरेसू ॥
कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा । भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा ॥
अगम देखि नृप अति पछिताई । फिरेउ महाबन परेउ भुलाई ॥

दो॰ खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत ।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत ॥ १५७ ॥

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा । तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई । समर सेन तजि गयउ पराई ॥
समय प्रतापभानु कर जानी । आपन अति असमय अनुमानी ॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी । मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥
रिस उर मारि रंक जिमि राजा । बिपिन बसइ तापस कें साजा ॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा । यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥
राउ तृषित नहि सो पहिचाना । देखि सुबेष महामुनि जाना ॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा । परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥
दो० भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ ।

मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥ १५८ ॥

गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ । निज आश्रम तापस लै गयऊ ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी । पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें । सुंदर जुबा जीव परहेलें ॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें । देखत दया लागि अति मोरें ॥
नाम प्रतापभानु अवनीसा । तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई । बडे भाग देखउँ पद आई ॥
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा । जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥
कह मुनि तात भयउ अँधियारा । जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥

दो॰ निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान ।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥ १५९(क) ॥

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥ १५९(ख) ॥

भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा । बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा ॥
नृप बहु भाति प्रसंसेउ ताही । चरन बंदि निज भाग्य सराही ॥
पुनि बोले मृदु गिरा सुहाई । जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई ॥
मोहि मुनिस सुत सेवक जानी । नाथ नाम निज कहहु बखानी ॥
तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना । भूप सुह्रद सो कपट सयाना ॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा । छल बल कीन्ह चहइ निज काजा ॥
समुझि राजसुख दुखित अराती । अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥
सरल बचन नृप के सुनि काना । बयर सँभारि हृदयँ हरषाना ॥


दो॰ कपट बोरि बानी मृदुल बोलेउ जुगुति समेत ।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेति ॥ १६० ॥

कह नृप जे बिग्यान निधाना । तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना ॥
सदा रहहि अपनपौ दुराएँ । सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ ॥
तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें । परम अकिंचन प्रिय हरि केरें ॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा । होत बिरंचि सिवहि संदेहा ॥
जोसि सोसि तव चरन नमामी । मो पर कृपा करिअ अब स्वामी ॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी । आपु बिषय बिस्वास बिसेषी ॥
सब प्रकार राजहि अपनाई । बोलेउ अधिक सनेह जनाई ॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला । इहाँ बसत बीते बहु काला ॥

दो॰ अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु ।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥ १६१(क) ॥


सो॰ तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ १६१(ख)

तातें गुपुत रहउँ जग माहीं । हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं ॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ । कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें । प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें ॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही । दारुन दोष घटइ अति मोही ॥
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा । तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी । तब बोला तापस बगध्यानी ॥
नाम हमार एकतनु भाई । सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी । मोहि सेवक अति आपन जानी ॥

दो॰ आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि ।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥ १६२ ॥

जनि आचरुज करहु मन माहीं । सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं ॥
तपबल तें जग सृजइ बिधाता । तपबल बिष्नु भए परित्राता ॥
तपबल संभु करहिं संघारा । तप तें अगम न कछु संसारा ॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा । कथा पुरातन कहै सो लागा ॥
करम धरम इतिहास अनेका । करइ निरूपन बिरति बिबेका ॥
उदभव पालन प्रलय कहानी । कहेसि अमित आचरज बखानी ॥
सुनि महिप तापस बस भयऊ । आपन नाम कहत तब लयऊ ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही । कीन्हेहु कपट लाग भल मोही ॥

सो॰ सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप ।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव ॥ १६३ ॥

नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा । सत्यकेतु तव पिता नरेसा ॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा । कहिअ न आपन जानि अकाजा ॥
देखि तात तव सहज सुधाई । प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई ॥
उपजि परि ममता मन मोरें । कहउँ कथा निज पूछे तोरें ॥
अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं । मागु जो भूप भाव मन माहीं ॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना । गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना ॥
कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें । चारि पदारथ करतल मोरें ॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी । मागि अगम बर होउँ असोकी ॥

दो॰ जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ ॥ १६४ ॥

कह तापस नृप ऐसेइ होऊ । कारन एक कठिन सुनु सोऊ ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा । एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा ॥
तपबल बिप्र सदा बरिआरा । तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा ॥
जौं बिप्रन्ह सब करहु नरेसा । तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा ॥
चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई । सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई ॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला । तोर नास नहि कवनेहुँ काला ॥
हरषेउ राउ बचन सुनि तासू । नाथ न होइ मोर अब नासू ॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना । मो कहुँ सर्ब काल कल्याना ॥

दो॰ एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि ।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि ॥ १६५ ॥

तातें मै तोहि बरजउँ राजा । कहें कथा तव परम अकाजा ॥

छठें श्रवन यह परत कहानी । नास तुम्हार सत्य मम बानी ॥
यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा । नास तोर सुनु भानुप्रतापा ॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं । जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं ॥
सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा । द्विज गुर कोप कहहु को राखा ॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता । गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता ॥
जौं न चलब हम कहे तुम्हारें । होउ नास नहिं सोच हमारें ॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा । प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा ॥

दो॰ होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउँ ॥ १६६ ॥

सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं । कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं ॥
अहइ एक अति सुगम उपाई । तहाँ परंतु एक कठिनाई ॥
मम आधीन जुगुति नृप सोई । मोर जाब तव नगर न होई ॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ । काहू के गृह ग्राम न गयऊँ ॥
जौं न जाउँ तव होइ अकाजू । बना आइ असमंजस आजू ॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी । नाथ निगम असि नीति बखानी ॥
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं । गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू । संतत धरनि धरत सिर रेनू ॥

दो॰ अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल ।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल ॥ १६७ ॥

जानि नृपहि आपन आधीना । बोला तापस कपट प्रबीना ॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही । जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही ॥
अवसि काज मैं करिहउँ तोरा । मन तन बचन भगत तैं मोरा ॥
जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ । फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ ॥
जौं नरेस मैं करौं रसोई । तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई ॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई । सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई ॥
पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ । तव बस होइ भूप सुनु सोऊ ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू । संबत भरि संकलप करेहू ॥

दो॰ नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार ।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं=FBकरिब जेवनार ॥ १६८ ॥

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें । होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें ॥
करिहहिं बिप्र होम मख सेवा । तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा ॥
और एक तोहि कहऊँ लखाऊ । मैं एहि बेष न आउब काऊ ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया । हरि आनब मैं करि निज माया ॥
तपबल तेहि करि आपु समाना । रखिहउँ इहाँ बरष परवाना ॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा । सब बिधि तोर सँवारब काजा ॥
गै निसि बहुत सयन अब कीजे । मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे ॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता । पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता ॥

दो॰ मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि ।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि ॥ १६९ ॥

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी । आसन जाइ बैठ छलग्यानी ॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई । सो किमि सोव सोच अधिकाई ॥
कालकेतु निसिचर तहँ आवा । जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा ॥
परम मित्र तापस नृप केरा । जानइ सो अति कपट घनेरा ॥
तेहि के सत सुत अरु दस भाई । खल अति अजय देव दुखदाई ॥
प्रथमहि भूप समर सब मारे । बिप्र संत सुर देखि दुखारे ॥
तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा । तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा ॥
जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ । भावी बस न जान कछु राऊ ॥

दो॰ रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु ।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु ॥ १७० ॥

तापस नृप निज सखहि निहारी । हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी ॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई । जातुधान बोला सुख पाई ॥
अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा । जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा ॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई । बिनु औषध बिआधि बिधि खोई ॥
कुल समेत रिपु मूल बहाई । चौथे दिवस मिलब मैं आई ॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी । चला महाकपटी अतिरोषी ॥
भानुप्रतापहि बाजि समेता । पहुँचाएसि छन माझ निकेता ॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई । हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई ॥

दो॰ राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि ।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥ १७१ ॥

आपु बिरचि उपरोहित रूपा । परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना । देखि भवन अति अचरजु माना ॥
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी । उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं । पुर नर नारि न जानेउ केहीं ॥
गएँ जाम जुग भूपति आवा । घर घर उत्सव बाज बधावा ॥
उपरोहितहि देख जब राजा । चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी । कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥
समय जानि उपरोहित आवा । नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥

दो॰ नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत ।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत ॥ १७२ ॥

उपरोहित जेवनार बनाई । छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई । बिंजन बहु गनि सकइ न कोई ॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा । तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए । पद पखारि सादर बैठाए ॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला । भै अकासबानी तेहि काला ॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू । है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू । सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी । भावी बस आव मुख बानी ॥

दो॰ बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार ।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥ १७३ ॥

छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई । घालै लिए सहित समुदाई ॥
ईस्वर राखा धरम हमारा । जैहसि तैं समेत परिवारा ॥
संबत मध्य नास तव होऊ । जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा । भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा । नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी । भूप गयउ जहँ भोजन खानी ॥
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा । फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई । त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥

दो॰ भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर ।
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥ १७४ ॥

अस कहि सब महिदेव सिधाए । समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं । बिचरत हंस काग किय जेहीं ॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई । असुर तापसहि खबरि जनाई ॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए । सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥
घेरेन्हि नगर निसान बजाई । बिबिध भाँति नित होई लराई ॥
जूझे सकल सुभट करि करनी । बंधु समेत परेउ नृप धरनी ॥
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा । बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई । निज पुर गवने जय जसु पाई ॥

दो॰ भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम ।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥ ।१७५ ॥

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा । भयउ निसाचर सहित समाजा ॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा । रावन नाम बीर बरिबंडा ॥
भूप अनुज अरिमर्दन नामा । भयउ सो कुंभकरन बलधामा ॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू । भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ॥
नाम बिभीषन जेहि जग जाना । बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे । भए निसाचर घोर घनेरे ॥
कामरूप खल जिनस अनेका । कुटिल भयंकर बिगत बिबेका ॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी । बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥

दो॰ उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप ।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप ॥ १७६ ॥

कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई । परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता । मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥

करि बिनती पद गहि दससीसा । बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥
हम काहू के मरहिं न मारें । बानर मनुज जाति दुइ बारें ॥
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा । मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ । तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ ॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू । होइहि सब उजारि संसारू ॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी । मागेसि नीद मास षट केरी ॥

दो॰ गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु ।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥ १७७ ॥

तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए । हरषित ते अपने गृह आए ॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा । परम सुंदरी नारि ललामा ॥
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी । होइहि जातुधानपति जानी ॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई । पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ॥
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी । बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा । कनक रचित मनिभवन अपारा ॥
भोगावति जसि अहिकुल बासा । अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका । जग बिख्यात नाम तेहि लंका ॥

दो॰ खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव ।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥ १७८(क) ॥

हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥ १७८(ख) ॥

रहे तहाँ निसिचर भट भारे । ते सब सुरन्ह समर संघारे ॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे । रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई । सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई । जच्छ जीव लै गए पराई ॥
फिरि सब नगर दसानन देखा । गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा ॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी । कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे । सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥
एक बार कुबेर पर धावा । पुष्पक जान जीति लै आवा ॥

दो॰ कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥ १७९ ॥

सुख संपति सुत सेन सहाई । जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई । जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता । जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥
करइ पान सोवइ षट मासा । जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई । बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना । तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू । भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई । सुरपुर नितहिं परावन होई ॥

दो॰ कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय ।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥ १८० ॥


कामरूप जानहिं सब माया । सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा । देखि अमित आपन परिवारा ॥
सुत समूह जन परिजन नाती । गे को पार निसाचर जाती ॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी । बोला बचन क्रोध मद सानी ॥

सुनहु सकल रजनीचर जूथा । हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥
ते सनमुख नहिं करही लराई । देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई । कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥
द्विजभोजन मख होम सराधा ॥ सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥

दो॰ छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ ॥ १८१ ॥


मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा । दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा ॥

जे सुर समर धीर बलवाना । जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना ॥
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी । उठि सुत पितु अनुसासन काँधी ॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही । आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही ॥
चलत दसानन डोलति अवनी । गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी ॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा । देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा ॥
दिगपालन्ह के लोक सुहाए । सूने सकल दसानन पाए ॥
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी । देइ देवतन्ह गारि पचारी ॥
रन मद मत्त फिरइ जग धावा । प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा ॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी । अगिनि काल जम सब अधिकारी ॥
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा । हठि सबही के पंथहिं लागा ॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी । दसमुख बसबर्ती नर नारी ॥
आयसु करहिं सकल भयभीता । नवहिं आइ नित चरन बिनीता ॥

दो॰ भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र ।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र ॥ १८२(ख) ॥

देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि ।
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि ॥ १८२ख ॥


इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ । सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा । तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥
देखत भीमरूप सब पापी । निसिचर निकर देव परितापी ॥
करहि उपद्रव असुर निकाया । नाना रूप धरहिं करि माया ॥
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला । सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं । नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ॥
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई । देव बिप्र गुरू मान न कोई ॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना । सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना ॥

छं॰ जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा ।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना ।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ॥

सो॰ बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं ।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥ १८३ ॥

मासपारायण, छठा विश्राम
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लंपट परधन परदारा ॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही । जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ॥
सकल धर्म देखइ बिपरीता । कहि न सकइ रावन भय भीता ॥
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी । गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥
निज संताप सुनाएसि रोई । काहू तें कछु काज न होई ॥

छं॰ सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका ।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई ।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥

सो॰ धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरिपद सुमिरु ।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥ १८४ ॥

बैठे सुर सब करहिं बिचारा । कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा ॥
पुर बैकुंठ जान कह कोई । कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ॥
जाके हृदयँ भगति जसि प्रीति । प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ । अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ ॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना । प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं । कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥
अग जगमय सब रहित बिरागी । प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ॥
मोर बचन सब के मन माना । साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ॥

दो॰ सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर ।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर ॥ १८५ ॥


छं॰ जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता ।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई ।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा ।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा ।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा ।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा ।
मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥
सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना ।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा ।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥

दो॰ जानि सभय सुरभूमि सुनि बचन समेत सनेह ।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥ १८६ ॥

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥
कस्यप अदिति महातप कीन्हा । तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा । कोसलपुरीं प्रगट नरभूपा ॥
तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई । रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ । परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई । निर्भय होहु देव समुदाई ॥
गगन ब्रह्मबानी सुनी काना । तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥
तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा । अभय भई भरोस जियँ आवा ॥

दो॰ निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ १८७ ॥

गए देव सब निज निज धामा । भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ।
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा । हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥
बनचर देह धरि छिति माहीं । अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा । हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी । रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा । अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ । बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी । हृदयँ भगति मति सारँगपानी ॥

दो॰ कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत ।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥ १८८ ॥

एक बार भूपति मन माहीं । भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला । चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ । कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी । त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा । पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें । प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा । सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई । जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥

दो॰ तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ १८९ ॥

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं । कौसल्यादि तहाँ चलि आई ॥
अर्ध भाग कौसल्याहि दीन्हा । उभय भाग आधे कर कीन्हा ॥
कैकेई कहँ नृप सो दयऊ । रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि । दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि ॥
एहि बिधि गर्भसहित सब नारी । भईं हृदयँ हरषित सुख भारी ॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए । सकल लोक सुख संपति छाए ॥
मंदिर महँ सब राजहिं रानी । सोभा सील तेज की खानीं ॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ । जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ ॥

दो॰ जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल ।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥ १९० ॥

नौमी तिथि मधु मास पुनीता । सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता ॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा । पावन काल लोक बिश्रामा ॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ । हरषित सुर संतन मन चाऊ ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा । स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा ॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना । चले सकल सुर साजि बिमाना ॥
गगन बिमल सकुल सुर जूथा । गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा ॥
बरषहिं सुमन सुअंजलि साजी । गहगहि गगन दुंदुभी बाजी ॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा । बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा ॥

दो॰ सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम ।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥ १९१ ॥


छं॰ भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पति थिर न रहै ॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली सो मति डौली तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥

दो॰ बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ १९२ ॥

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी । संभ्रम चलि आई सब रानी ॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी । आनँद मगन सकल पुरबासी ॥
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना । मानहुँ ब्रह्मानंद समाना ॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा । चाहत उठत करत मति धीरा ॥
जाकर नाम सुनत सुभ होई । मोरें गृह आवा प्रभु सोई ॥
परमानंद पूरि मन राजा । कहा बोलाइ बजावहु बाजा ॥
गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा । आए द्विजन सहित नृपद्वारा ॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई । रूप रासि गुन कहि न सिराई ॥

दो॰ नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह ।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह ॥ १९३ ॥

ध्वज पताक तोरन पुर छावा । कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा ॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई । ब्रह्मानंद मगन सब लोई ॥
बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाई । सहज संगार किएँ उठि धाई ॥
कनक कलस मंगल धरि थारा । गावत पैठहिं भूप दुआरा ॥
करि आरति नेवछावरि करहीं । बार बार सिसु चरनन्हि परहीं ॥
मागध सूत बंदिगन गायक । पावन गुन गावहिं रघुनायक ॥
सर्बस दान दीन्ह सब काहू । जेहिं पावा राखा नहिं ताहू ॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा । मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा ॥

दो॰ गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद ।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद ॥ १९४ ॥

कैकयसुता सुमित्रा दोऊ । सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ ॥
वह सुख संपति समय समाजा । कहि न सकइ सारद अहिराजा ॥
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती । प्रभुहि मिलन आई जनु राती ॥
देखि भानू जनु मन सकुचानी । तदपि बनी संध्या अनुमानी ॥
अगर धूप बहु जनु अँधिआरी । उड़इ अभीर मनहुँ अरुनारी ॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा । नृप गृह कलस सो इंदु उदारा ॥
भवन बेदधुनि अति मृदु बानी । जनु खग मूखर समयँ जनु सानी ॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना । एक मास तेइँ जात न जाना ॥

दो॰ मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ ॥ १९५ ॥

यह रहस्य काहू नहिं जाना । दिन मनि चले करत गुनगाना ॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा । चले भवन बरनत निज भागा ॥
औरउ एक कहउँ निज चोरी । सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी ॥
काक भुसुंडि संग हम दोऊ । मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ ॥
परमानंद प्रेमसुख फूले । बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले ॥
यह सुभ चरित जान पै सोई । कृपा राम कै जापर होई ॥
तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा । दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा ॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा । दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा ॥

दो॰ मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहि असीस ।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस ॥ १९६ ॥


कछुक दिवस बीते एहि भाँती । जात न जानिअ दिन अरु राती ॥
नामकरन कर अवसरु जानी । भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी ॥
करि पूजा भूपति अस भाषा । धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा ॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा । मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा ॥
जो आनंद सिंधु सुखरासी । सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥
सो सुख धाम राम अस नामा । अखिल लोक दायक बिश्रामा ॥
बिस्व भरन पोषन कर जोई । ताकर नाम भरत अस होई ॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा । नाम सत्रुहन बेद प्रकासा ॥

दो॰ लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार ।
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार ॥ १९७ ॥

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी । बेद तत्व नृप तव सुत चारी ॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना । बाल केलि तेहिं सुख माना ॥
बारेहि ते निज हित पति जानी । लछिमन राम चरन रति मानी ॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई । प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई ॥
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी । निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी ॥
चारिउ सील रूप गुन धामा । तदपि अधिक सुखसागर रामा ॥
हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा । सूचत किरन मनोहर हासा ॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना । मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना ॥

दो॰ ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद ।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद ॥ १९८ ॥

काम कोटि छबि स्याम सरीरा । नील कंज बारिद गंभीरा ॥
अरुन चरन पकंज नख जोती । कमल दलन्हि बैठे जनु मोती ॥
रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे । नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे ॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा । नाभि गभीर जान जेहि देखा ॥
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी । हियँ हरि नख अति सोभा रूरी ॥
उर मनिहार पदिक की सोभा । बिप्र चरन देखत मन लोभा ॥
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई । आनन अमित मदन छबि छाई ॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे । नासा तिलक को बरनै पारे ॥
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला । अति प्रिय मधुर तोतरे बोला ॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे । बहु प्रकार रचि मातु सँवारे ॥
पीत झगुलिआ तनु पहिराई । जानु पानि बिचरनि मोहि भाई ॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा । सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा ॥

दो॰ सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत ।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत ॥ १९९ ॥

एहि बिधि राम जगत पितु माता । कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता ॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी । तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी ॥
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी । कवन सकइ भव बंधन छोरी ॥
जीव चराचर बस कै राखे । सो माया प्रभु सों भय भाखे ॥
भृकुटि बिलास नचावइ ताही । अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही ॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई । भजत कृपा करिहहिं रघुराई ॥
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा । सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा ॥
लै उछंग कबहुँक हलरावै । कबहुँ पालनें घालि झुलावै ॥

दो॰ प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान ।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान ॥ २०० ॥

एक बार जननीं अन्हवाए । करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए ॥

निज कुल इष्टदेव भगवाना । पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना ॥
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा । आपु गई जहँ पाक बनावा ॥
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई । भोजन करत देख सुत जाई ॥
गै जननी सिसु पहिं भयभीता । देखा बाल तहाँ पुनि सूता ॥
बहुरि आइ देखा सुत सोई । हृदयँ कंप मन धीर न होई ॥
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा । मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा ॥
देखि राम जननी अकुलानी । प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ॥

दो॰ देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड ।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड ॥ २०१ ॥

अगनित रबि ससि सिव चतुरानन । बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन ॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ । सोउ देखा जो सुना न काऊ ॥
देखी माया सब बिधि गाढ़ी । अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी ॥
देखा जीव नचावइ जाही । देखी भगति जो छोरइ ताही ॥
तन पुलकित मुख बचन न आवा । नयन मूदि चरननि सिरु नावा ॥
बिसमयवंत देखि महतारी । भए बहुरि सिसुरूप खरारी ॥
अस्तुति करि न जाइ भय माना । जगत पिता मैं सुत करि जाना ॥
हरि जननि बहुबिधि समुझाई । यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई ॥

दो॰ बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि ॥
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि ॥ २०२ ॥

बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा । अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा ॥
कछुक काल बीतें सब भाई । बड़े भए परिजन सुखदाई ॥
चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई । बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई ॥
परम मनोहर चरित अपारा । करत फिरत चारिउ सुकुमारा ॥
मन क्रम बचन अगोचर जोई । दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई ॥
भोजन करत बोल जब राजा । नहिं आवत तजि बाल समाजा ॥
कौसल्या जब बोलन जाई । ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई ॥
निगम नेति सिव अंत न पावा । ताहि धरै जननी हठि धावा ॥
धूरस धूरि भरें तनु आए । भूपति बिहसि गोद बैठाए ॥

दो॰ भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ ॥ २०३ ॥

बालचरित अति सरल सुहाए । सारद सेष संभु श्रुति गाए ॥
जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता । ते जन बंचित किए बिधाता ॥
भए कुमार जबहिं सब भ्राता । दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता ॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई । अलप काल बिद्या सब आई ॥
जाकी सहज स्वास श्रुति चारी । सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी ॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला । खेलहिं खेल सकल नृपलीला ॥
करतल बान धनुष अति सोहा । देखत रूप चराचर मोहा ॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई । थकित होहिं सब लोग लुगाई ॥

दो॰ कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल ।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल ॥ २०४ ॥

बंधु सखा संग लेहिं बोलाई । बन मृगया नित खेलहिं जाई ॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी । दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी ॥
जे मृग राम बान के मारे । ते तनु तजि सुरलोक सिधारे ॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं । मातु पिता अग्या अनुसरहीं ॥
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा । करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा ॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई । आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई ॥
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा । मातु पिता गुरु नावहिं माथा ॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा । देखि चरित हरषइ मन राजा ॥

दो॰ ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप ।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ॥ २०५ ॥

यह सब चरित कहा मैं गाई । आगिलि कथा सुनहु मन लाई ॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी । बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी ॥
जहँ जप जग्य मुनि करही । अति मारीच सुबाहुहि डरहीं ॥
देखत जग्य निसाचर धावहि । करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं ॥
गाधितनय मन चिंता ब्यापी । हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी ॥
तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा । प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा ॥
एहुँ मिस देखौं पद जाई । करि बिनती आनौ दोउ भाई ॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना । सो प्रभु मै देखब भरि नयना ॥

दो॰ बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार ।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार ॥ २०६ ॥

मुनि आगमन सुना जब राजा । मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा ॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी । निज आसन बैठारेन्हि आनी ॥
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा । मो सम आजु धन्य नहिं दूजा ॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा । मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा ॥
पुनि चरननि मेले सुत चारी । राम देखि मुनि देह बिसारी ॥
भए मगन देखत मुख सोभा । जनु चकोर पूरन ससि लोभा ॥
तब मन हरषि बचन कह राऊ । मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा । कहहु सो करत न लावउँ बारा ॥
असुर समूह सतावहिं मोही । मै जाचन आयउँ नृप तोही ॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा । निसिचर बध मैं होब सनाथा ॥

दो॰ देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान ।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान ॥ २०७ ॥

सुनि राजा अति अप्रिय बानी । हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी ॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी । बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी ॥
मागहु भूमि धेनु धन कोसा । सर्बस देउँ आजु सहरोसा ॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाही । सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही ॥
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं । राम देत नहिं बनइ गोसाई ॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा । कहँ सुंदर सुत परम किसोरा ॥
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी । हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी ॥
तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा । नृप संदेह नास कहँ पावा ॥
अति आदर दोउ तनय बोलाए । हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए ॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ । तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ ॥

दो॰ सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस ।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस ॥ २०८(क) ॥


सो॰ पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन ॥
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन ॥ २०८(ख)

अरुन नयन उर बाहु बिसाला । नील जलज तनु स्याम तमाला ॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा । रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा ॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई । बिस्बामित्र महानिधि पाई ॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना । मोहि निति पिता तजेहु भगवाना ॥
चले जात मुनि दीन्हि दिखाई । सुनि ताड़का क्रोध करि धाई ॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा । दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा ॥
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही । बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही ॥
जाते लाग न छुधा पिपासा । अतुलित बल तनु तेज प्रकासा ॥

दो॰ आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि ।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ॥ २०९ ॥

प्रात कहा मुनि सन रघुराई । निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥
होम करन लागे मुनि झारी । आपु रहे मख कीं रखवारी ॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही । लै सहाय धावा मुनिद्रोही ॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा । सत जोजन गा सागर पारा ॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा । अनुज निसाचर कटकु सँघारा ॥
मारि असुर द्विज निर्मयकारी । अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ॥
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया । रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया ॥
भगति हेतु बहु कथा पुराना । कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥
तब मुनि सादर कहा बुझाई । चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥
धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा । हरषि चले मुनिबर के साथा ॥
आश्रम एक दीख मग माहीं । खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं ॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी । सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥

दो॰ गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर ।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ २१० ॥


छं॰ परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही ।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही ॥
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही ।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई ।
अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥
मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई ।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई ॥
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना ।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना ।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना ॥
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी ।
सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी ॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी ।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी ॥

दो॰ अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल ।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ॥ २११ ॥

मासपारायण, सातवाँ विश्राम
चले राम लछिमन मुनि संगा । गए जहाँ जग पावनि गंगा ॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई । जेहि प्रकार सुरसरि महि आई ॥
तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए । बिबिध दान महिदेवन्हि पाए ॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया । बेगि बिदेह नगर निअराया ॥
पुर रम्यता राम जब देखी । हरषे अनुज समेत बिसेषी ॥
बापीं कूप सरित सर नाना । सलिल सुधासम मनि सोपाना ॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा । कूजत कल बहुबरन बिहंगा ॥
बरन बरन बिकसे बन जाता । त्रिबिध समीर सदा सुखदाता ॥

दो॰ सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास ।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास ॥ २१२ ॥

बनइ न बरनत नगर निकाई । जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई ॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी । मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी ॥
धनिक बनिक बर धनद समाना । बैठ सकल बस्तु लै नाना ॥
चौहट सुंदर गलीं सुहाई । संतत रहहिं सुगंध सिंचाई ॥
मंगलमय मंदिर सब केरें । चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें ॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता । धरमसील ग्यानी गुनवंता ॥
अति अनूप जहँ जनक निवासू । बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू ॥
होत चकित चित कोट बिलोकी । सकल भुवन सोभा जनु रोकी ॥

दो॰ धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति ।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति ॥ २१३ ॥

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा । भूप भीर नट मागध भाटा ॥
बनी बिसाल बाजि गज साला । हय गय रथ संकुल सब काला ॥
सूर सचिव सेनप बहुतेरे । नृपगृह सरिस सदन सब केरे ॥
पुर बाहेर सर सारित समीपा । उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा ॥
देखि अनूप एक अँवराई । सब सुपास सब भाँति सुहाई ॥
कौसिक कहेउ मोर मनु माना । इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना ॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता । उतरे तहँ मुनिबृंद समेता ॥
बिस्वामित्र महामुनि आए । समाचार मिथिलापति पाए ॥

दो॰ संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति ।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति ॥ २१४ ॥

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा । दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा ॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे । जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे ॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा । बिस्वामित्र नृपहि बैठारा ॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई । गए रहे देखन फुलवाई ॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा । लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥
उठे सकल जब रघुपति आए । बिस्वामित्र निकट बैठाए ॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता । बारि बिलोचन पुलकित गाता ॥
मूरति मधुर मनोहर देखी । भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥

दो॰ प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर ।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर ॥ २१५ ॥

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक । मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा । उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥
सहज बिरागरुप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ । कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका । बचन तुम्हार न होइ अलीका ॥
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी । मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी ॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए । मम हित लागि नरेस पठाए ॥

दो॰ रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम ।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम ॥ २१६ ॥


मुनि तव चरन देखि कह राऊ । कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता । आनँदहू के आनँद दाता ॥
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि । कहि न जाइ मन भाव सुहावनि ॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू । ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू । पुलक गात उर अधिक उछाहू ॥
म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू । चलेउ लवाइ नगर अवनीसू ॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला । तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला ॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई । गयउ राउ गृह बिदा कराई ॥

दो॰ रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु ।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु ॥ २१७ ॥

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी । जाइ जनकपुर आइअ देखी ॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं । प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं ॥
राम अनुज मन की गति जानी । भगत बछलता हिंयँ हुलसानी ॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई । बोले गुर अनुसासन पाई ॥
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं । प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं ॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं । नगर देखाइ तुरत लै आवौ ॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती । कस न राम तुम्ह राखहु नीती ॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता । प्रेम बिबस सेवक सुखदाता ॥

दो॰ जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ ॥ २१८ ॥

मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता । चले लोक लोचन सुख दाता ॥
बालक बृंदि देखि अति सोभा । लगे संग लोचन मनु लोभा ॥
पीत बसन परिकर कटि भाथा । चारु चाप सर सोहत हाथा ॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी । स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥
केहरि कंधर बाहु बिसाला । उर अति रुचिर नागमनि माला ॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन । बदन मयंक तापत्रय मोचन ॥
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं । चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं ॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी । तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी ॥

दो॰ रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस ।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस ॥ २१९ ॥

देखन नगरु भूपसुत आए । समाचार पुरबासिन्ह पाए ॥
धाए धाम काम सब त्यागी । मनहु रंक निधि लूटन लागी ॥
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई । होहिं सुखी लोचन फल पाई ॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं । निरखहिं राम रूप अनुरागीं ॥
कहहिं परसपर बचन सप्रीती । सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती ॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं । सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं ॥
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी । बिकट बेष मुख पंच पुरारी ॥
अपर देउ अस कोउ न आही । यह छबि सखि पटतरिअ जाही ॥

दो॰ बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम ॥ २२० ॥

कहहु सखी अस को तनुधारी । जो न मोह यह रूप निहारी ॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी । जो मैं सुना सो सुनहु सयानी ॥
ए दोऊ दसरथ के ढोटा । बाल मरालन्हि के कल जोटा ॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे । जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे ॥
स्याम गात कल कंज बिलोचन । जो मारीच सुभुज मदु मोचन ॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी । नामु रामु धनु सायक पानी ॥
गौर किसोर बेषु बर काछें । कर सर चाप राम के पाछें ॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता । सुनु सखि तासु सुमित्रा माता ॥

दो॰ बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि ।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि ॥ २२१ ॥

देखि राम छबि कोउ एक कहई । जोगु जानकिहि यह बरु अहई ॥
जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू । पन परिहरि हठि करइ बिबाहू ॥
कोउ कह ए भूपति पहिचाने । मुनि समेत सादर सनमाने ॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई । बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई ॥
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता । सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता ॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू । नाहिन आलि इहाँ संदेहू ॥
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू । तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू ॥
सखि हमरें आरति अति तातें । कबहुँक ए आवहिं एहि नातें ॥

दो॰ नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि ।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि ॥ २२२ ॥

बोली अपर कहेहु सखि नीका । एहिं बिआह अति हित सबहीं का ॥
कोउ कह संकर चाप कठोरा । ए स्यामल मृदुगात किसोरा ॥
सबु असमंजस अहइ सयानी । यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी ॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं । बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं ॥
परसि जासु पद पंकज धूरी । तरी अहल्या कृत अघ भूरी ॥
सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें । यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें ॥
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी । तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी ॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं । ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी ॥

दो॰ हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद ।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद ॥ २२३ ॥

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई । जहँ धनुमख हित भूमि बनाई ॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी । बिमल बेदिका रुचिर सँवारी ॥
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला । रचे जहाँ बेठहिं महिपाला ॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा । अपर मंच मंडली बिलासा ॥
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई । बैठहिं नगर लोग जहँ जाई ॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए । धवल धाम बहुबरन बनाए ॥
जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी । जथा जोगु निज कुल अनुहारी ॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना । सादर प्रभुहि देखावहिं रचना ॥

दो॰ सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात ।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात ॥ २२४ ॥

सिसु सब राम प्रेमबस जाने । प्रीति समेत निकेत बखाने ॥
निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई । सहित सनेह जाहिं दोउ भाई ॥
राम देखावहिं अनुजहि रचना । कहि मृदु मधुर मनोहर बचना ॥
लव निमेष महँ भुवन निकाया । रचइ जासु अनुसासन माया ॥
भगति हेतु सोइ दीनदयाला । चितवत चकित धनुष मखसाला ॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं । जानि बिलंबु त्रास मन माहीं ॥
जासु त्रास डर कहुँ डर होई । भजन प्रभाउ देखावत सोई ॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं । किए बिदा बालक बरिआई ॥

दो॰ सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ ॥ २२५ ॥

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा । सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा ॥
कहत कथा इतिहास पुरानी । रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ॥
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई । लगे चरन चापन दोउ भाई ॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी । करत बिबिध जप जोग बिरागी ॥
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते । गुर पद कमल पलोटत प्रीते ॥
बारबार मुनि अग्या दीन्ही । रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही ॥
चापत चरन लखनु उर लाएँ । सभय सप्रेम परम सचु पाएँ ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता । पौढ़े धरि उर पद जलजाता ॥

दो॰ उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान ॥
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान ॥ २२६ ॥

सकल सौच करि जाइ नहाए । नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ॥
समय जानि गुर आयसु पाई । लेन प्रसून चले दोउ भाई ॥
भूप बागु बर देखेउ जाई । जहँ बसंत रितु रही लोभाई ॥
लागे बिटप मनोहर नाना । बरन बरन बर बेलि बिताना ॥
नव पल्लव फल सुमान सुहाए । निज संपति सुर रूख लजाए ॥
चातक कोकिल कीर चकोरा । कूजत बिहग नटत कल मोरा ॥
मध्य बाग सरु सोह सुहावा । मनि सोपान बिचित्र बनावा ॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा । जलखग कूजत गुंजत भृंगा ॥

दो॰ बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत ।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत ॥ २२७ ॥

चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन । लगे लेन दल फूल मुदित मन ॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई । गिरिजा पूजन जननि पठाई ॥
संग सखीं सब सुभग सयानी । गावहिं गीत मनोहर बानी ॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा । बरनि न जाइ देखि मनु मोहा ॥
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता । गई मुदित मन गौरि निकेता ॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा । निज अनुरूप सुभग बरु मागा ॥
एक सखी सिय संगु बिहाई । गई रही देखन फुलवाई ॥
तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई । प्रेम बिबस सीता पहिं आई ॥

दो॰ तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन ।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन ॥ २२८ ॥

देखन बागु कुअँर दुइ आए । बय किसोर सब भाँति सुहाए ॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥
सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी । सिय हियँ अति उतकंठा जानी ॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली । सुने जे मुनि सँग आए काली ॥
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी । कीन्ह स्वबस नगर नर नारी ॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू । अवसि देखिअहिं देखन जोगू ॥
तासु वचन अति सियहि सुहाने । दरस लागि लोचन अकुलाने ॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई । प्रीति पुरातन लखइ न कोई ॥

दो॰ सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत ॥
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत ॥ २२९ ॥

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही ॥ मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही ॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा । सिय मुख ससि भए नयन चकोरा ॥
भए बिलोचन चारु अचंचल । मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥
देखि सीय सोभा सुखु पावा । हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई । बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई ॥
सुंदरता कहुँ सुंदर करई । छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई ॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी । केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी ॥

दो॰ सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि ।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ॥ २३० ॥

तात जनकतनया यह सोई । धनुषजग्य जेहि कारन होई ॥
पूजन गौरि सखीं लै आई । करत प्रकासु फिरइ फुलवाई ॥
जासु बिलोकि अलोकिक सोभा । सहज पुनीत मोर मनु छोभा ॥
सो सबु कारन जान बिधाता । फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता ॥
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ । मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी ॥
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी । नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी ॥
मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं । ते नरबर थोरे जग माहीं ॥

दो॰ करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान ।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान ॥ २३१ ॥

चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता । कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता ॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी । जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी ॥
लता ओट तब सखिन्ह लखाए । स्यामल गौर किसोर सुहाए ॥
देखि रूप लोचन ललचाने । हरषे जनु निज निधि पहिचाने ॥
थके नयन रघुपति छबि देखें । पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें ॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी । सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥
लोचन मग रामहि उर आनी । दीन्हे पलक कपाट सयानी ॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी । कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी ॥

दो॰ लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ ॥ २३२ ॥

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा । नील पीत जलजाभ सरीरा ॥
मोरपंख सिर सोहत नीके । गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के ॥
भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए । श्रवन सुभग भूषन छबि छाए ॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे । नव सरोज लोचन रतनारे ॥
चारु चिबुक नासिका कपोला । हास बिलास लेत मनु मोला ॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं । जो बिलोकि बहु काम लजाहीं ॥
उर मनि माल कंबु कल गीवा । काम कलभ कर भुज बलसींवा ॥
सुमन समेत बाम कर दोना । सावँर कुअँर सखी सुठि लोना ॥

दो॰ केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान ।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान ॥ २३३ ॥

धरि धीरजु एक आलि सयानी । सीता सन बोली गहि पानी ॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू । भूपकिसोर देखि किन लेहू ॥
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे । सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे ॥
नख सिख देखि राम कै सोभा । सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा ॥
परबस सखिन्ह लखी जब सीता । भयउ गहरु सब कहहि सभीता ॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली । अस कहि मन बिहसी एक आली ॥
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी । भयउ बिलंबु मातु भय मानी ॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने । फिरि अपनपउ पितुबस जाने ॥

दो॰ देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि ।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि ॥ २३४ ॥

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति । चली राखि उर स्यामल मूरति ॥
प्रभु जब जात जानकी जानी । सुख सनेह सोभा गुन खानी ॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही । चारु चित भीतीं लिख लीन्ही ॥
गई भवानी भवन बहोरी । बंदि चरन बोली कर जोरी ॥
जय जय गिरिबरराज किसोरी । जय महेस मुख चंद चकोरी ॥
जय गज बदन षड़ानन माता । जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना । अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि । बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥

दो॰ पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख ।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ॥ २३५ ॥


सेवत तोहि सुलभ फल चारी । बरदायनी पुरारि पिआरी ॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे । सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें । बसहु सदा उर पुर सबही कें ॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं । अस कहि चरन गहे बैदेहीं ॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी । खसी माल मूरति मुसुकानी ॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ । बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी । पूजिहि मन कामना तुम्हारी ॥
नारद बचन सदा सुचि साचा । सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ॥

छं॰ मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥

सो॰ जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥ २३६ ॥

हृदयँ सराहत सीय लोनाई । गुर समीप गवने दोउ भाई ॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ॥
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही । पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही ॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे । रामु लखनु सुनि भए सुखारे ॥
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी । लगे कहन कछु कथा पुरानी ॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई । संध्या करन चले दोउ भाई ॥
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा । सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं । सीय बदन सम हिमकर नाहीं ॥

दो॰ जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक ।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक ॥ २३७ ॥

घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई । ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई ॥
कोक सिकप्रद पंकज द्रोही । अवगुन बहुत चंद्रमा तोही ॥
बैदेही मुख पटतर दीन्हे । होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे ॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी । गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी ॥
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा । आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ॥
बिगत निसा रघुनायक जागे । बंधु बिलोकि कहन अस लागे ॥
उदउ अरुन अवलोकहु ताता । पंकज कोक लोक सुखदाता ॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी । प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी ॥

दो॰ अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन ।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन ॥ २३८ ॥

नृप सब नखत करहिं उजिआरी । टारि न सकहिं चाप तम भारी ॥
कमल कोक मधुकर खग नाना । हरषे सकल निसा अवसाना ॥
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे । होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा । दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ॥
रबि निज उदय ब्याज रघुराया । प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया ॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी । प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी ॥
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने । होइ सुचि सहज पुनीत नहाने ॥
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए । चरन सरोज सुभग सिर नाए ॥
सतानंदु तब जनक बोलाए । कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए ॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई । हरषे बोलि लिए दोउ भाई ॥

दो॰ सतानंद=FBपद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ ॥ २३९ ॥

सीय स्वयंबरु देखिअ जाई । ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ॥
लखन कहा जस भाजनु सोई । नाथ कृपा तव जापर होई ॥
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी । दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला । देखन चले धनुषमख साला ॥
रंगभूमि आए दोउ भाई । असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई ॥
चले सकल गृह काज बिसारी । बाल जुबान जरठ नर नारी ॥
देखी जनक भीर भै भारी । सुचि सेवक सब लिए हँकारी ॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू । आसन उचित देहू सब काहू ॥

दो॰ कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि ।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ॥ २४० ॥

राजकुअँर तेहि अवसर आए । मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥
गुन सागर नागर बर बीरा । सुंदर स्यामल गौर सरीरा ॥
राज समाज बिराजत रूरे । उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
देखहिं रूप महा रनधीरा । मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा । तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ॥
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई । नरभूषन लोचन सुखदाई ॥

दो॰ नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप ।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ॥ २४१ ॥

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं । सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ॥
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी । सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा । सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता । इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया । सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ । तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ॥

दो॰ राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर ।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥ २४२ ॥

सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जी के ॥
चितवत चारु मार मनु हरनी । भावति हृदय जाति नहीं बरनी ॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला । चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ॥
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा । भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ॥
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई । कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ॥
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥

दो॰ कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल ।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥ २४३ ॥

कटि तूनीर पीत पट बाँधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए । नख सिख मंजु महाछबि छाए ॥
देखि लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई । मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥
करि बिनती निज कथा सुनाई । रंग अवनि सब मुनिहि देखाई ॥
जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ । तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ॥
निज निज रुख रामहि सबु देखा । कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ । राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥

दो॰ सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल ।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ॥ २४४ ॥

प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे । जनु राकेस उदय भएँ तारे ॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं । राम चाप तोरब सक नाहीं ॥
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला । मेलिहि सीय राम उर माला ॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई । जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥
बिहसे अपर भूप सुनि बानी । जे अबिबेक अंध अभिमानी ॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा । बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥
एक बार कालउ किन होऊ । सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥
यह सुनि अवर महिप मुसकाने । धरमसील हरिभगत सयाने ॥

सो॰ सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ॥
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ २४५ ॥

ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई । मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता । जगदंबा जानहु जियँ सीता ॥
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी । भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी । ए दोउ बंधु संभु उर बासी ॥
सुधा समुद्र समीप बिहाई । मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा । हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥
अस कहि भले भूप अनुरागे । रूप अनूप बिलोकन लागे ॥
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना । बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥

दो॰ जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई ।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं ॥ २४६ ॥

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी । जगदंबिका रूप गुन खानी ॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं । प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ॥
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई । कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥
जौ पटतरिअ तीय सम सीया । जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥
गिरा मुखर तन अरध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही । कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई ॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू । मथै पानि पंकज निज मारू ॥

दो॰ एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल ।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥ २४७ ॥

चलिं संग लै सखीं सयानी । गावत गीत मनोहर बानी ॥
सोह नवल तनु सुंदर सारी । जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥
भूषन सकल सुदेस सुहाए । अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ॥
रंगभूमि जब सिय पगु धारी । देखि रूप मोहे नर नारी ॥
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई । बरषि प्रसून अपछरा गाई ॥
पानि सरोज सोह जयमाला । अवचट चितए सकल भुआला ॥
सीय चकित चित रामहि चाहा । भए मोहबस सब नरनाहा ॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई । लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥

दो॰ गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ॥
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥ २४८ ॥

राम रूपु अरु सिय छबि देखें । नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं । बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ॥
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई । मति हमारि असि देहि सुहाई ॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु । सीय राम कर करै बिबाहू ॥
जग भल कहहि भाव सब काहू । हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू ॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू । बरु साँवरो जानकी जोगू ॥
तब बंदीजन जनक बौलाए । बिरिदावली कहत चलि आए ॥
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥

दो॰ बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल ।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ॥ २४९ ॥

नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू । गरुअ कठोर बिदित सब काहू ॥
रावनु बानु महाभट भारे । देखि सरासन गवँहिं सिधारे ॥
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा । राज समाज आजु जोइ तोरा ॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही ॥ बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे । भटमानी अतिसय मन माखे ॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई । चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ॥
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं । उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं । चाप समीप महीप न जाहीं ॥

दो॰ तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ ।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ॥ २५० ॥

भूप सहस दस एकहि बारा । लगे उठावन टरइ न टारा ॥
डगइ न संभु सरासन कैसें । कामी बचन सती मनु जैसें ॥
सब नृप भए जोगु उपहासी । जैसें बिनु बिराग संन्यासी ॥
कीरति बिजय बीरता भारी । चले चाप कर बरबस हारी ॥
श्रीहत भए हारि हियँ राजा । बैठे निज निज जाइ समाजा ॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने । बोले बचन रोष जनु साने ॥
दीप दीप के भूपति नाना । आए सुनि हम जो पनु ठाना ॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा । बिपुल बीर आए रनधीरा ॥

दो॰ कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय ।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥ २५१ ॥

कहहु काहि यहु लाभु न भावा । काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई । तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ॥
अब जनि कोउ माखै भट मानी । बीर बिहीन मही मैं जानी ॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ । कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ ॥
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई । तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥
जनक बचन सुनि सब नर नारी । देखि जानकिहि भए दुखारी ॥
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें । रदपट फरकत नयन रिसौंहें ॥

दो॰ कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान ।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ॥ २५२ ॥

रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई । तेहिं समाज अस कहइ न कोई ॥
कही जनक जसि अनुचित बानी । बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ॥
सुनहु भानुकुल पंकज भानू । कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू ॥
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं । कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ॥
काचे घट जिमि डारौं फोरी । सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी ॥
तव प्रताप महिमा भगवाना । को बापुरो पिनाक पुराना ॥
नाथ जानि अस आयसु होऊ । कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ॥
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं । जोजन सत प्रमान लै धावौं ॥

दो॰ तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ ॥ २५३ ॥

लखन सकोप बचन जे बोले । डगमगानि महि दिग्गज डोले ॥
सकल लोक सब भूप डेराने । सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने ॥
गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं । मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं ॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे । प्रेम समेत निकट बैठारे ॥
बिस्वामित्र समय सुभ जानी । बोले अति सनेहमय बानी ॥
उठहु राम भंजहु भवचापा । मेटहु तात जनक परितापा ॥
सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा । हरषु बिषादु न कछु उर आवा ॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ । ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ ॥

दो॰ उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग ।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥ २५४ ॥

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी । बचन नखत अवली न प्रकासी ॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने । कपटी भूप उलूक लुकाने ॥
भए बिसोक कोक मुनि देवा । बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा ॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा । राम मुनिन्ह सन आयसु मागा ॥
सहजहिं चले सकल जग स्वामी । मत्त मंजु बर कुंजर गामी ॥
चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक पूरि तन भए सुखारी ॥
बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे । जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं । तोरहुँ राम गनेस गोसाईं ॥

दो॰ रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ ॥ २५५ ॥

सखि सब कौतुक देखनिहारे । जेठ कहावत हितू हमारे ॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं । ए बालक असि हठ भलि नाहीं ॥
रावन बान छुआ नहिं चापा । हारे सकल भूप करि दापा ॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं । बाल मराल कि मंदर लेहीं ॥
भूप सयानप सकल सिरानी । सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी । तेजवंत लघु गनिअ न रानी ॥
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा । सोषेउ सुजसु सकल संसारा ॥
रबि मंडल देखत लघु लागा । उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ॥

दो॰ मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब ।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब ॥ २५६ ॥

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी । भंजब धनुष रामु सुनु रानी ॥
सखी बचन सुनि भै परतीती । मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती ॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही । सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥
मनहीं मन मनाव अकुलानी । होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥
करहु सफल आपनि सेवकाई । करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥
गननायक बरदायक देवा । आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा ॥
बार बार बिनती सुनि मोरी । करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥

दो॰ देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर ॥
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर ॥ २५७ ॥

नीकें निरखि नयन भरि सोभा । पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी । समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥
सचिव सभय सिख देइ न कोई । बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ॥
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा । सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥
सकल सभा कै मति भै भोरी । अब मोहि संभुचाप गति तोरी ॥
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी ॥
अति परिताप सीय मन माही । लव निमेष जुग सब सय जाहीं ॥

दो॰ प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल ।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल ॥ २५८ ॥

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी । प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥
लोचन जलु रह लोचन कोना । जैसे परम कृपन कर सोना ॥
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी । धरि धीरजु प्रतीति उर आनी ॥
तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥
तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहिं मोहि रघुबर कै दासी ॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संहेहू ॥
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना । कृपानिधान राम सबु जाना ॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे । चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥

दो॰ लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु ।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु ॥ २५९ ॥

दिसकुंजरहु कमठ अहि कोला । धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥
रामु चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥
चाप सपीप रामु जब आए । नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए ॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥
भृगुपति केरि गरब गरुआई । सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा । रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ॥
संभुचाप बड बोहितु पाई । चढे जाइ सब संगु बनाई ॥
राम बाहुबल सिंधु अपारू । चहत पारु नहि कोउ कड़हारू ॥

दो॰ राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि ।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि ॥ २६० ॥

देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ॥
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा । मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ॥
का बरषा सब कृषी सुखानें । समय चुकें पुनि का पछितानें ॥
अस जियँ जानि जानकी देखी । प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ॥
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा । अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ । पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ॥
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें । काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा । भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥

छं॰ भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले ।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं ।
कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारही ॥

सो॰ संकर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु ।
बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो प्रथमहिं मोह बस ॥ २६१ ॥

प्रभु दोउ चापखंड महि डारे । देखि लोग सब भए सुखारे ॥

कोसिकरुप पयोनिधि पावन । प्रेम बारि अवगाहु सुहावन ॥
रामरूप राकेसु निहारी । बढ़त बीचि पुलकावलि भारी ॥
बाजे नभ गहगहे निसाना । देवबधू नाचहिं करि गाना ॥
ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा । प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा ॥
बरिसहिं सुमन रंग बहु माला । गावहिं किंनर गीत रसाला ॥
रही भुवन भरि जय जय बानी । धनुषभंग धुनि जात न जानी ॥
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी । भंजेउ राम संभुधनु भारी ॥

दो॰ बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर ।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर ॥ २६२ ॥

झाँझि मृदंग संख सहनाई । भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई ॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए । जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए ॥
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी । सूखत धान परा जनु पानी ॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई । पैरत थकें थाह जनु पाई ॥
श्रीहत भए भूप धनु टूटे । जैसें दिवस दीप छबि छूटे ॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती । जनु चातकी पाइ जलु स्वाती ॥
रामहि लखनु बिलोकत कैसें । ससिहि चकोर किसोरकु जैसें ॥
सतानंद तब आयसु दीन्हा । सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा ॥

दो॰ संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार ।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार ॥ २६३ ॥

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे । छबिगन मध्य महाछबि जैसें ॥
कर सरोज जयमाल सुहाई । बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई ॥
तन सकोचु मन परम उछाहू । गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू ॥
जाइ समीप राम छबि देखी । रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी ॥
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई । पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥
सुनत जुगल कर माल उठाई । प्रेम बिबस पहिराइ न जाई ॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला । ससिहि सभीत देत जयमाला ॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली । सियँ जयमाल राम उर मेली ॥

सो॰ रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन ।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥ २६४ ॥

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे । खल भए मलिन साधु सब राजे ॥
सुर किंनर नर नाग मुनीसा । जय जय जय कहि देहिं असीसा ॥
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं । बार बार कुसुमांजलि छूटीं ॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं । बंदी बिरदावलि उच्चरहीं ॥
महि पाताल नाक जसु ब्यापा । राम बरी सिय भंजेउ चापा ॥
करहिं आरती पुर नर नारी । देहिं निछावरि बित्त बिसारी ॥
सोहति सीय राम कै जौरी । छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी ॥
सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता । करति न चरन परस अति भीता ॥

दो॰ गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि ।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥ २६५ ॥

तब सिय देखि भूप अभिलाषे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे ॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे । जहँ तहँ गाल बजावन लागे ॥
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ । धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ ॥
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई । जीवत हमहि कुअँरि को बरई ॥
जौं बिदेहु कछु करै सहाई । जीतहु समर सहित दोउ भाई ॥
साधु भूप बोले सुनि बानी । राजसमाजहि लाज लजानी ॥
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई । नाक पिनाकहि संग सिधाई ॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई । असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई ॥

दो॰ देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु ।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु ॥ २६६ ॥

बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि ससु चहै नाग अरि भागू ॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै सिवद्रोही ॥
लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लहई ॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा । तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥
कोलाहलु सुनि सीय सकानी । सखीं लवाइ गईं जहँ रानी ॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं । सिय सनेहु बरनत मन माहीं ॥
रानिन्ह सहित सोचबस सीया । अब धौं बिधिहि काह करनीया ॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं । लखनु राम डर बोलि न सकहीं ॥

दो॰ अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप ।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप ॥ २६७ ॥

खरभरु देखि बिकल पुर नारीं । सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं ॥
तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा । आयसु भृगुकुल कमल पतंगा ॥
देखि महीप सकल सकुचाने । बाज झपट जनु लवा लुकाने ॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा । भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा ॥
सीस जटा ससिबदनु सुहावा । रिसबस कछुक अरुन होइ आवा ॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते । सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते ॥
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला । चारु जनेउ माल मृगछाला ॥
कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें । धनु सर कर कुठारु कल काँधें ॥

दो॰ सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप ।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप ॥ २६८ ॥

देखत भृगुपति बेषु कराला । उठे सकल भय बिकल भुआला ॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा । लगे करन सब दंड प्रनामा ॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी । सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा । सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं । निज समाज लै गई सयानीं ॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई । पद सरोज मेले दोउ भाई ॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा । दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन । रूप अपार मार मद मोचन ॥

दो॰ बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥
पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ २६९ ॥

समाचार कहि जनक सुनाए । जेहि कारन महीप सब आए ॥
सुनत बचन फिरि अनत निहारे । देखे चापखंड महि डारे ॥
अति रिस बोले बचन कठोरा । कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा ॥
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू । उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू ॥
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं । कुटिल भूप हरषे मन माहीं ॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी ॥ सोचहिं सकल त्रास उर भारी ॥
मन पछिताति सीय महतारी । बिधि अब सँवरी बात बिगारी ॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता । अरध निमेष कलप सम बीता ॥

दो॰ सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु ।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु ॥ २७० ॥

मासपारायण, नवाँ विश्राम
नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥
आयसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरि करनी करि करिअ लराई ॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहि अपमाने ॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥

दो॰ रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार ॥
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार ॥ २७१ ॥

लखन कहा हँसि हमरें जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ॥
का छति लाभु जून धनु तौरें । देखा राम नयन के भोरें ॥
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू । मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
बोले चितइ परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ॥
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही । केवल मुनि जड़ जानहि मोही ॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही । बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही ॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा । परसु बिलोकु महीपकुमारा ॥

दो॰ मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर ।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥ २७२ ॥

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी । अहो मुनीसु महा भटमानी ॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू । चहत उड़ावन फूँकि पहारू ॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं । जे तरजनी देखि मरि जाहीं ॥
देखि कुठारु सरासन बाना । मैं कछु कहा सहित अभिमाना ॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी । जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी ॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई । हमरें कुल इन्ह पर न सुराई ॥
बधें पापु अपकीरति हारें । मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें ॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा । ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ॥

दो॰ जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर ।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर ॥ २७३ ॥

कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु । कुटिल कालबस निज कुल घालकु ॥
भानु बंस राकेस कलंकू । निपट निरंकुस अबुध असंकू ॥
काल कवलु होइहि छन माहीं । कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं ॥
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा । कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा ॥
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा । तुम्हहि अछत को बरनै पारा ॥
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी । बार अनेक भाँति बहु बरनी ॥
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा । गारी देत न पावहु सोभा ॥

दो॰ सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु ।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥ २७४ ॥

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ॥
सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ॥
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब यहु मरनिहार भा साँचा ॥
कौसिक कहा छमिअ अपराधू । बाल दोष गुन गनहिं न साधू ॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगें अपराधी गुरुद्रोही ॥
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें । केवल कौसिक सील तुम्हारें ॥
न त एहि काटि कुठार कठोरें । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें ॥

दो॰ गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ॥ २७५ ॥

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा । को नहि जान बिदित संसारा ॥
माता पितहि उरिन भए नीकें । गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें ॥
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा । दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा ॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली । तुरत देउँ मैं थैली खोली ॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा । हाय हाय सब सभा पुकारा ॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही । बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही ॥
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े । द्विज देवता घरहि के बाढ़े ॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे । रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे ॥

दो॰ लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु ।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ॥ २७६ ॥

नाथ करहु बालक पर छोहू । सूध दूधमुख करिअ न कोहू ॥
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना । तौ कि बराबरि करत अयाना ॥
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं । गुर पितु मातु मोद मन भरहीं ॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी । तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी ॥
राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने । कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने ॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी । राम तोर भ्राता बड़ पापी ॥
गौर सरीर स्याम मन माहीं । कालकूटमुख पयमुख नाहीं ॥
सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही । नीचु मीचु सम देख न मौहीं ॥

दो॰ लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल ।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल ॥ २७७ ॥

मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया । परिहरि कोपु करिअ अब दाया ॥
टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने । बैठिअ होइहिं पाय पिराने ॥
जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई । जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई ॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं । मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं ॥
थर थर कापहिं पुर नर नारी । छोट कुमार खोट बड़ भारी ॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी । रिस तन जरइ होइ बल हानी ॥
बोले रामहि देइ निहोरा । बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा ॥
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें । बिष रस भरा कनक घटु जैसैं ॥

दो॰ सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम ।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम ॥ २७८ ॥

अति बिनीत मृदु सीतल बानी । बोले रामु जोरि जुग पानी ॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना । बालक बचनु करिअ नहिं काना ॥
बररै बालक एकु सुभाऊ । इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा । अपराधी में नाथ तुम्हारा ॥
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं । मो पर करिअ दास की नाई ॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई । मुनिनायक सोइ करौं उपाई ॥
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें । अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें ॥
एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा । तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा ॥

दो॰ गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर ।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर ॥ २७९ ॥

बहइ न हाथु दहइ रिस छाती । भा कुठारु कुंठित नृपघाती ॥
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ । मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ ॥
आजु दया दुखु दुसह सहावा । सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा ॥
बाउ कृपा मूरति अनुकूला । बोलत बचन झरत जनु फूला ॥
जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता । क्रोध भएँ तनु राख बिधाता ॥
देखु जनक हठि बालक एहू । कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू ॥
बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा । देखत छोट खोट नृप ढोटा ॥
बिहसे लखनु कहा मन माहीं । मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं ॥

दो॰ परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु ।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु ॥ २८० ॥

बंधु कहइ कटु संमत तोरें । तू छल बिनय करसि कर जोरें ॥
करु परितोषु मोर संग्रामा । नाहिं त छाड़ कहाउब रामा ॥
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही । बंधु सहित न त मारउँ तोही ॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ । मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ ॥
गुनह लखन कर हम पर रोषू । कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू ॥
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू । बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू ॥
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा । कर कुठारु आगें यह सीसा ॥
जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी । मोहि जानि आपन अनुगामी ॥

दो॰ प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु ।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु ॥ २८१ ॥

देखि कुठार बान धनु धारी । भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी ॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा । बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा ॥
जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं । पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं ॥
छमहु चूक अनजानत केरी । चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी ॥
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा ॥ कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥
राम मात्र लघु नाम हमारा । परसु सहित बड़ नाम तोहारा ॥
देव एकु गुनु धनुष हमारें । नव गुन परम पुनीत तुम्हारें ॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे । छमहु बिप्र अपराध हमारे ॥

दो॰ बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम ।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम ॥ २८२ ॥

निपटहिं द्विज करि जानहि मोही । मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही ॥
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू । कोप मोर अति घोर कृसानु ॥
समिधि सेन चतुरंग सुहाई । महा महीप भए पसु आई ॥
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे । समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे ॥
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें । बोलसि निदरि बिप्र के भोरें ॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा । अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा ॥
राम कहा मुनि कहहु बिचारी । रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी ॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना । मैं कहि हेतु करौं अभिमाना ॥

दो॰ जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ ॥ २८३ ॥

देव दनुज भूपति भट नाना । समबल अधिक होउ बलवाना ॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ । लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥
छत्रिय तनु धरि समर सकाना । कुल कलंकु तेहिं पावँर आना ॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिं न रन रघुबंसी ॥
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई । अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ॥
सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के । उघरे पटल परसुधर मति के ॥
राम रमापति कर धनु लेहू । खैंचहु मिटै मोर संदेहू ॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ । परसुराम मन बिसमय भयऊ ॥

दो॰ जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात ।
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात ॥ २८४ ॥

जय रघुबंस बनज बन भानू । गहन दनुज कुल दहन कृसानु ॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी । जय मद मोह कोह भ्रम हारी ॥
बिनय सील करुना गुन सागर । जयति बचन रचना अति नागर ॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा । जय सरीर छबि कोटि अनंगा ॥
करौं काह मुख एक प्रसंसा । जय महेस मन मानस हंसा ॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता । छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता ॥
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू । भृगुपति गए बनहि तप हेतू ॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने । जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने ॥

दो॰ देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल ।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल ॥ २८५ ॥

अति गहगहे बाजने बाजे । सबहिं मनोहर मंगल साजे ॥
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं । करहिं गान कल कोकिलबयनी ॥
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई । जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥
गत त्रास भइ सीय सुखारी । जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी ॥
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा । प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा ॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं । अब जो उचित सो कहिअ गोसाई ॥
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना । रहा बिबाहु चाप आधीना ॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू । सुर नर नाग बिदित सब काहु ॥

दो॰ तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु ।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु ॥ २८६ ॥

दूत अवधपुर पठवहु जाई । आनहिं नृप दसरथहि बोलाई ॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला । पठए दूत बोलि तेहि काला ॥
बहुरि महाजन सकल बोलाए । आइ सबन्हि सादर सिर नाए ॥
हाट बाट मंदिर सुरबासा । नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा ॥
हरषि चले निज निज गृह आए । पुनि परिचारक बोलि पठाए ॥
रचहु बिचित्र बितान बनाई । सिर धरि बचन चले सचु पाई ॥
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना । जे बितान बिधि कुसल सुजाना ॥
बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा । बिरचे कनक कदलि के खंभा ॥

दो॰ हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल ।
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल ॥ २८७ ॥

बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे । सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे ॥
कनक कलित अहिबेल बनाई । लखि नहि परइ सपरन सुहाई ॥
तेहि के रचि पचि बंध बनाए । बिच बिच मुकता दाम सुहाए ॥
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा । चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ॥
किए भृंग बहुरंग बिहंगा । गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा ॥
सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी । मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी ॥
चौंकें भाँति अनेक पुराईं । सिंधुर मनिमय सहज सुहाई ॥

दो॰ सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि ॥
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ॥ २८८ ॥

रचे रुचिर बर बंदनिबारे । मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे ॥
मंगल कलस अनेक बनाए । ध्वज पताक पट चमर सुहाए ॥
दीप मनोहर मनिमय नाना । जाइ न बरनि बिचित्र बिताना ॥
जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही । सो बरनै असि मति कबि केही ॥
दूलहु रामु रूप गुन सागर । सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ॥
जनक भवन कै सौभा जैसी । गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी ॥
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी । तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी ॥
जो संपदा नीच गृह सोहा । सो बिलोकि सुरनायक मोहा ॥

दो॰ बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु ॥
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु ॥ २८९ ॥

पहुँचे दूत राम पुर पावन । हरषे नगर बिलोकि सुहावन ॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई । दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई ॥
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही । मुदित महीप आपु उठि लीन्ही ॥
बारि बिलोचन बाचत पाँती । पुलक गात आई भरि छाती ॥
रामु लखनु उर कर बर चीठी । रहि गए कहत न खाटी मीठी ॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची । हरषी सभा बात सुनि साँची ॥
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई । आए भरतु सहित हित भाई ॥
पूछत अति सनेहँ सकुचाई । तात कहाँ तें पाती आई ॥

दो॰ कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस ।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ॥ २९० ॥

सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता । अधिक सनेहु समात न गाता ॥
प्रीति पुनीत भरत कै देखी । सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी ॥
तब नृप दूत निकट बैठारे । मधुर मनोहर बचन उचारे ॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे । तुम्ह नीकें निज नयन निहारे ॥
स्यामल गौर धरें धनु भाथा । बय किसोर कौसिक मुनि साथा ॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ । प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ ॥
जा दिन तें मुनि गए लवाई । तब तें आजु साँचि सुधि पाई ॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने । सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने ॥

दो॰ सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ ।
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ ॥ २९१ ॥

पूछन जोगु न तनय तुम्हारे । पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ॥
जिन्ह के जस प्रताप कें आगे । ससि मलीन रबि सीतल लागे ॥
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे । देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ॥
सीय स्वयंबर भूप अनेका । समिटे सुभट एक तें एका ॥
संभु सरासनु काहुँ न टारा । हारे सकल बीर बरिआरा ॥
तीनि लोक महँ जे भटमानी । सभ कै सकति संभु धनु भानी ॥
सकइ उठाइ सरासुर मेरू । सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू ॥
जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा । सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा ॥

दो॰ तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल ।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल ॥ २९२ ॥

सुनि सरोष भृगुनायकु आए । बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए ॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा । करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा ॥
राजन रामु अतुलबल जैसें । तेज निधान लखनु पुनि तैसें ॥
कंपहि भूप बिलोकत जाकें । जिमि गज हरि किसोर के ताकें ॥
देव देखि तव बालक दोऊ । अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी । प्रेम प्रताप बीर रस पागी ॥
सभा समेत राउ अनुरागे । दूतन्ह देन निछावरि लागे ॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना । धरमु बिचारि सबहिं सुख माना ॥

दो॰ तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ ।
कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ ॥ २९३ ॥

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई । पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई ॥
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं । जद्यपि ताहि कामना नाहीं ॥
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ । धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ ॥
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी । तसि पुनीत कौसल्या देबी ॥
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं । भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं ॥
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें । राजन राम सरिस सुत जाकें ॥
बीर बिनीत धरम ब्रत धारी । गुन सागर बर बालक चारी ॥
तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना । सजहु बरात बजाइ निसाना ॥

दो॰ चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ ।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ ॥ २९४ ॥

राजा सबु रनिवास बोलाई । जनक पत्रिका बाचि सुनाई ॥
सुनि संदेसु सकल हरषानीं । अपर कथा सब भूप बखानीं ॥
प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी । मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी ॥
मुदित असीस देहिं गुरु नारीं । अति आनंद मगन महतारीं ॥
लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती । हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती ॥
राम लखन कै कीरति करनी । बारहिं बार भूपबर बरनी ॥
मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए । रानिन्ह तब महिदेव बोलाए ॥
दिए दान आनंद समेता । चले बिप्रबर आसिष देता ॥

सो॰ जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि ।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के ॥ २९५ ॥

कहत चले पहिरें पट नाना । हरषि हने गहगहे निसाना ॥
समाचार सब लोगन्ह पाए । लागे घर घर होने बधाए ॥
भुवन चारि दस भरा उछाहू । जनकसुता रघुबीर बिआहू ॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे । मग गृह गलीं सँवारन लागे ॥
जद्यपि अवध सदैव सुहावनि । राम पुरी मंगलमय पावनि ॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई । मंगल रचना रची बनाई ॥
ध्वज पताक पट चामर चारु । छावा परम बिचित्र बजारू ॥
कनक कलस तोरन मनि जाला । हरद दूब दधि अच्छत माला ॥

दो॰ मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ ।
बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ ॥ २९६ ॥

जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि । सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि ॥
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि । निज सरुप रति मानु बिमोचनि ॥
गावहिं मंगल मंजुल बानीं । सुनिकल रव कलकंठि लजानीं ॥
भूप भवन किमि जाइ बखाना । बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना ॥
मंगल द्रब्य मनोहर नाना । राजत बाजत बिपुल निसाना ॥
कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं । कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं ॥
गावहिं सुंदरि मंगल गीता । लै लै नामु रामु अरु सीता ॥
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा । मानहुँ उमगि चला चहु ओरा ॥

दो॰ सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार ।
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार ॥ २९७ ॥

भूप भरत पुनि लिए बोलाई । हय गय स्यंदन साजहु जाई ॥
चलहु बेगि रघुबीर बराता । सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता ॥
भरत सकल साहनी बोलाए । आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए ॥
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे । बरन बरन बर बाजि बिराजे ॥
सुभग सकल सुठि चंचल करनी । अय इव जरत धरत पग धरनी ॥
नाना जाति न जाहिं बखाने । निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने ॥
तिन्ह सब छयल भए असवारा । भरत सरिस बय राजकुमारा ॥
सब सुंदर सब भूषनधारी । कर सर चाप तून कटि भारी ॥

दो॰ छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन ।
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन ॥ २९८ ॥

बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े । निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े ॥
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना । हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना ॥
रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए । ध्वज पताक मनि भूषन लाए ॥
चवँर चारु किंकिन धुनि करही । भानु जान सोभा अपहरहीं ॥
सावँकरन अगनित हय होते । ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते ॥
सुंदर सकल अलंकृत सोहे । जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे ॥
जे जल चलहिं थलहि की नाई । टाप न बूड़ बेग अधिकाई ॥
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई । रथी सारथिन्ह लिए बोलाई ॥

दो॰ चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात ।
होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात ॥ २९९ ॥

कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं । कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं ॥
चले मत्तगज घंट बिराजी । मनहुँ सुभग सावन घन राजी ॥
बाहन अपर अनेक बिधाना । सिबिका सुभग सुखासन जाना ॥
तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा । जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा ॥
मागध सूत बंदि गुनगायक । चले जान चढ़ि जो जेहि लायक ॥
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती । चले बस्तु भरि अगनित भाँती ॥
कोटिन्ह काँवरि चले कहारा । बिबिध बस्तु को बरनै पारा ॥
चले सकल सेवक समुदाई । निज निज साजु समाजु बनाई ॥

दो॰ सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर ।
कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर ॥ ३०० ॥

गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा । रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा ॥
निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना । निज पराइ कछु सुनिअ न काना ॥
महा भीर भूपति के द्वारें । रज होइ जाइ पषान पबारें ॥
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं । लिँएँ आरती मंगल थारी ॥
गावहिं गीत मनोहर नाना । अति आनंदु न जाइ बखाना ॥
तब सुमंत्र दुइ स्पंदन साजी । जोते रबि हय निंदक बाजी ॥
दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने । नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने ॥
राज समाजु एक रथ साजा । दूसर तेज पुंज अति भ्राजा ॥

दो॰ तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु ।
आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु ॥ ३०१ ॥

सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें । सुर गुर संग पुरंदर जैसें ॥
करि कुल रीति बेद बिधि राऊ । देखि सबहि सब भाँति बनाऊ ॥
सुमिरि रामु गुर आयसु पाई । चले महीपति संख बजाई ॥
हरषे बिबुध बिलोकि बराता । बरषहिं सुमन सुमंगल दाता ॥
भयउ कोलाहल हय गय गाजे । ब्योम बरात बाजने बाजे ॥
सुर नर नारि सुमंगल गाई । सरस राग बाजहिं सहनाई ॥
घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं । सरव करहिं पाइक फहराहीं ॥
करहिं बिदूषक कौतुक नाना । हास कुसल कल गान सुजाना ।

दो॰ तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान ॥
नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान ॥ ३०२ ॥

बनइ न बरनत बनी बराता । होहिं सगुन सुंदर सुभदाता ॥
चारा चाषु बाम दिसि लेई । मनहुँ सकल मंगल कहि देई ॥
दाहिन काग सुखेत सुहावा । नकुल दरसु सब काहूँ पावा ॥
सानुकूल बह त्रिबिध बयारी । सघट सवाल आव बर नारी ॥
लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा । सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा ॥
मृगमाला फिरि दाहिनि आई । मंगल गन जनु दीन्हि देखाई ॥
छेमकरी कह छेम बिसेषी । स्यामा बाम सुतरु पर देखी ॥
सनमुख आयउ दधि अरु मीना । कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना ॥

दो॰ मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार ।
जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार ॥ ३०३ ॥

मंगल सगुन सुगम सब ताकें । सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें ॥
राम सरिस बरु दुलहिनि सीता । समधी दसरथु जनकु पुनीता ॥
सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे । अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे ॥
एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना । हय गय गाजहिं हने निसाना ॥
आवत जानि भानुकुल केतू । सरितन्हि जनक बँधाए सेतू ॥
बीच बीच बर बास बनाए । सुरपुर सरिस संपदा छाए ॥
असन सयन बर बसन सुहाए । पावहिं सब निज निज मन भाए ॥
नित नूतन सुख लखि अनुकूले । सकल बरातिन्ह मंदिर भूले ॥

दो॰ आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान ।
सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान ॥ ३०४ ॥

मासपारायण,दसवाँ विश्राम
कनक कलस भरि कोपर थारा । भाजन ललित अनेक प्रकारा ॥
भरे सुधासम सब पकवाने । नाना भाँति न जाहिं बखाने ॥
फल अनेक बर बस्तु सुहाईं । हरषि भेंट हित भूप पठाईं ॥
भूषन बसन महामनि नाना । खग मृग हय गय बहुबिधि जाना ॥
मंगल सगुन सुगंध सुहाए । बहुत भाँति महिपाल पठाए ॥
दधि चिउरा उपहार अपारा । भरि भरि काँवरि चले कहारा ॥
अगवानन्ह जब दीखि बराता ।उर आनंदु पुलक भर गाता ॥
देखि बनाव सहित अगवाना । मुदित बरातिन्ह हने निसाना ॥

दो॰ हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल ।
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल ॥ ३०५ ॥

बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं । मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं ॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें । बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें ॥
प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा । भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा ॥
करि पूजा मान्यता बड़ाई । जनवासे कहुँ चले लवाई ॥
बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं । देखि धनहु धन मदु परिहरहीं ॥
अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा । जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा ॥
जानी सियँ बरात पुर आई । कछु निज महिमा प्रगटि जनाई ॥
हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई । भूप पहुनई करन पठाई ॥

दो॰ सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास ।
लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास ॥ ३०६ ॥

निज निज बास बिलोकि बराती । सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना । सकल जनक कर करहिं बखाना ॥
सिय महिमा रघुनायक जानी । हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी ॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई । हृदयँ न अति आनंदु अमाई ॥
सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं । पितु दरसन लालचु मन माहीं ॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी । उपजा उर संतोषु बिसेषी ॥
हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए । पुलक अंग अंबक जल छाए ॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे । मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे ॥

दो॰ भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत ।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत ॥ ३०७ ॥

मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा । बार बार पद रज धरि सीसा ॥
कौसिक राउ लिये उर लाई । कहि असीस पूछी कुसलाई ॥
पुनि दंडवत करत दोउ भाई । देखि नृपति उर सुखु न समाई ॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे । मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे ॥
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए । प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए ॥
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं । मन भावती असीसें पाईं ॥
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा । लिए उठाइ लाइ उर रामा ॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता । मिले प्रेम परिपूरित गाता ॥

दो॰ पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत ।
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत ॥ ३०८ ॥

रामहि देखि बरात जुड़ानी । प्रीति कि रीति न जाति बखानी ॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी । जनु धन धरमादिक तनुधारी ॥
सुतन्ह समेत दसरथहि देखी । मुदित नगर नर नारि बिसेषी ॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना । नाकनटीं नाचहिं करि गाना ॥
सतानंद अरु बिप्र सचिव गन । मागध सूत बिदुष बंदीजन ॥
सहित बरात राउ सनमाना । आयसु मागि फिरे अगवाना ॥
प्रथम बरात लगन तें आई । तातें पुर प्रमोदु अधिकाई ॥
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं । बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं ॥

दो॰ रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज ।
जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज ॥ ।३०९ ॥

जनक सुकृत मूरति बैदेही । दसरथ सुकृत रामु धरें देही ॥
इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे । काहिँ न इन्ह समान फल लाधे ॥
इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं । है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं ॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी । भए जग जनमि जनकपुर बासी ॥
जिन्ह जानकी राम छबि देखी । को सुकृती हम सरिस बिसेषी ॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू । लेब भली बिधि लोचन लाहू ॥
कहहिं परसपर कोकिलबयनीं । एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं ॥
बड़ें भाग बिधि बात बनाई । नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई ॥

दो॰ बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय ।
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय ॥ ३१० ॥

बिबिध भाँति होइहि पहुनाई । प्रिय न काहि अस सासुर माई ॥
तब तब राम लखनहि निहारी । होइहहिं सब पुर लोग सुखारी ॥
सखि जस राम लखनकर जोटा । तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा ॥
स्याम गौर सब अंग सुहाए । ते सब कहहिं देखि जे आए ॥
कहा एक मैं आजु निहारे । जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे ॥
भरतु रामही की अनुहारी । सहसा लखि न सकहिं नर नारी ॥
लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा । नख सिख ते सब अंग अनूपा ॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं । उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं ॥

छं॰ उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं ।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं ॥
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं ॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं ॥

सो॰ कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन ।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ ॥ ३११ ॥

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं । आनँद उमगि उमगि उर भरहीं ॥
जे नृप सीय स्वयंबर आए । देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए ॥
कहत राम जसु बिसद बिसाला । निज निज भवन गए महिपाला ॥
गए बीति कुछ दिन एहि भाँती । प्रमुदित पुरजन सकल बराती ॥
मंगल मूल लगन दिनु आवा । हिम रितु अगहनु मासु सुहावा ॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू । लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू ॥
पठै दीन्हि नारद सन सोई । गनी जनक के गनकन्ह जोई ॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता । कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता ॥

दो॰ धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल ।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल ॥ ३१२ ॥

उपरोहितहि कहेउ नरनाहा । अब बिलंब कर कारनु काहा ॥
सतानंद तब सचिव बोलाए । मंगल सकल साजि सब ल्याए ॥
संख निसान पनव बहु बाजे । मंगल कलस सगुन सुभ साजे ॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता । करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता ॥
लेन चले सादर एहि भाँती । गए जहाँ जनवास बराती ॥
कोसलपति कर देखि समाजू । अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू ॥
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ । यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा । चले संग मुनि साधु समाजा ॥

दो॰ भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि ।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि ॥ ३१३ ॥

सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना । बरषहिं सुमन बजाइ निसाना ॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा । चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा ॥
प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू । चले बिलोकन राम बिआहू ॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे । निज निज लोक सबहिं लघु लागे ॥
चितवहिं चकित बिचित्र बिताना । रचना सकल अलौकिक नाना ॥
नगर नारि नर रूप निधाना । सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥
तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं । भए नखत जनु बिधु उजिआरीं ॥
बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी । निज करनी कछु कतहुँ न देखी ॥

दो॰ सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु ।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु ॥ ३१४ ॥

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं । सकल अमंगल मूल नसाहीं ॥
करतल होहिं पदारथ चारी । तेइ सिय रामु कहेउ कामारी ॥
एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा । पुनि आगें बर बसह चलावा ॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता । महामोद मन पुलकित गाता ॥
साधु समाज संग महिदेवा । जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा ॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी । जनु अपबरग सकल तनुधारी ॥
मरकत कनक बरन बर जोरी । देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी ॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे । नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे ॥

दो॰ राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि ।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि ॥ ३१५ ॥

केकि कंठ दुति स्यामल अंगा । तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा ॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए । मंगल सब सब भाँति सुहाए ॥
सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन । नयन नवल राजीव लजावन ॥
सकल अलौकिक सुंदरताई । कहि न जाइ मनहीं मन भाई ॥
बंधु मनोहर सोहहिं संगा । जात नचावत चपल तुरंगा ॥
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं । बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं ॥
जेहि तुरंग पर रामु बिराजे । गति बिलोकि खगनायकु लाजे ॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा । बाजि बेषु जनु काम बनावा ॥

छं॰ जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई ।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई ॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे ।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे ॥

दो॰ प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव ।
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव ॥ ३१६ ॥

जेहिं बर बाजि रामु असवारा । तेहि सारदउ न बरनै पारा ॥
संकरु राम रूप अनुरागे । नयन पंचदस अति प्रिय लागे ॥
हरि हित सहित रामु जब जोहे । रमा समेत रमापति मोहे ॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने । आठइ नयन जानि पछिताने ॥
सुर सेनप उर बहुत उछाहू । बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू ॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना । गौतम श्रापु परम हित माना ॥
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं । आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं ॥
मुदित देवगन रामहि देखी । नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी ॥

छं॰ अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी ।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी ॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं ।
रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं ॥

दो॰ सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि ।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि ॥ ३१७ ॥

बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि । सब निज तन छबि रति मदु मोचनि ॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा । सकल बिभूषन सजें सरीरा ॥
सकल सुमंगल अंग बनाएँ । करहिं गान कलकंठि लजाएँ ॥
कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं । चालि बिलोकि काम गज लाजहिं ॥
बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा । नभ अरु नगर सुमंगलचारा ॥
सची सारदा रमा भवानी । जे सुरतिय सुचि सहज सयानी ॥
कपट नारि बर बेष बनाई । मिलीं सकल रनिवासहिं जाई ॥
करहिं गान कल मंगल बानीं । हरष बिबस सब काहुँ न जानी ॥

छं॰ को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली ।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली ॥
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई ॥
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई ॥

दो॰ जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु ।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु ॥ ३१८ ॥


नयन नीरु हटि मंगल जानी । परिछनि करहिं मुदित मन रानी ॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू । कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू ॥
पंच सबद धुनि मंगल गाना । पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना ॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा । राम गमनु मंडप तब कीन्हा ॥
दसरथु सहित समाज बिराजे । बिभव बिलोकि लोकपति लाजे ॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला । सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला ॥
नभ अरु नगर कोलाहल होई । आपनि पर कछु सुनइ न कोई ॥
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए । अरघु देइ आसन बैठाए ॥

छं॰ बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं ॥
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं ॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं ।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं ॥

दो॰ नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ ॥ ३१९ ॥

मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं । करि बैदिक लौकिक सब रीतीं ॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे । उपमा खोजि खोजि कबि लाजे ॥
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी । इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥
सामध देखि देव अनुरागे । सुमन बरषि जसु गावन लागे ॥
जगु बिरंचि उपजावा जब तें । देखे सुने ब्याह बहु तब तें ॥
सकल भाँति सम साजु समाजू । सम समधी देखे हम आजू ॥
देव गिरा सुनि सुंदर साँची । प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची ॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए । सादर जनकु मंडपहिं ल्याए ॥

छं॰ मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे ॥
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे ॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही ।
कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही ॥

दो॰ बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस ।
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस ॥ ३२० ॥

बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा । जानि ईस सम भाउ न दूजा ॥
कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई । कहि निज भाग्य बिभव बहुताई ॥
पूजे भूपति सकल बराती । समधि सम सादर सब भाँती ॥
आसन उचित दिए सब काहू । कहौं काह मूख एक उछाहू ॥
सकल बरात जनक सनमानी । दान मान बिनती बर बानी ॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ । जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ ॥
कपट बिप्र बर बेष बनाएँ । कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ ॥
पूजे जनक देव सम जानें । दिए सुआसन बिनु पहिचानें ॥

छं॰ पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई ।
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई ॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए ।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए ॥

दो॰ रामचंद्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर ।
करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर ॥ ३२१ ॥

समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए । सादर सतानंदु सुनि आए ॥
बेगि कुअँरि अब आनहु जाई । चले मुदित मुनि आयसु पाई ॥
रानी सुनि उपरोहित बानी । प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी ॥
बिप्र बधू कुलबृद्ध बोलाईं । करि कुल रीति सुमंगल गाईं ॥
नारि बेष जे सुर बर बामा । सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा ॥
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारीं । बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं ॥
बार बार सनमानहिं रानी । उमा रमा सारद सम जानी ॥
सीय सँवारि समाजु बनाई । मुदित मंडपहिं चलीं लवाई ॥

छं॰ चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं ।
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं ॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं ।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गती बर बाजहीं ॥

दो॰ सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय ।
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय ॥ ३२२ ॥

सिय सुंदरता बरनि न जाई । लघु मति बहुत मनोहरताई ॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता ॥ रूप रासि सब भाँति पुनीता ॥
सबहि मनहिं मन किए प्रनामा । देखि राम भए पूरनकामा ॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता । कहि न जाइ उर आनँदु जेता ॥
सुर प्रनामु करि बरसहिं फूला । मुनि असीस धुनि मंगल मूला ॥
गान निसान कोलाहलु भारी । प्रेम प्रमोद मगन नर नारी ॥
एहि बिधि सीय मंडपहिं आई । प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई ॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू । दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू ॥

छं॰ आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं ।
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं ॥
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं ।
भरे कनक कोपर कलस सो सब लिएहिं परिचारक रहैं ॥ १ ॥


कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो ।

एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो ॥

सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेम काहु न लखि परै ॥

मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै ॥ २ ॥


दो॰ होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं ।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं ॥ ३२३ ॥

जनक पाटमहिषी जग जानी । सीय मातु किमि जाइ बखानी ॥
सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई । सब समेटि बिधि रची बनाई ॥
समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई । सुनत सुआसिनि सादर ल्याई ॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना । हिमगिरि संग बनि जनु मयना ॥
कनक कलस मनि कोपर रूरे । सुचि सुंगध मंगल जल पूरे ॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी । धरे राम के आगें आनी ॥
पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी । गगन सुमन झरि अवसरु जानी ॥
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे । पाय पुनीत पखारन लागे ॥

छं॰ लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली ।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली ॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं ।
जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं ॥ १ ॥

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई ।
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई ॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं ।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै ॥ २ ॥

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं ।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं ॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो ।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो ॥ ३ ॥

हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई ।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई ॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी ।
करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी ॥ ४ ॥


दो॰ जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान ।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान ॥ ३२४ ॥

कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं ॥ नयन लाभु सब सादर लेहीं ॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी । जो उपमा कछु कहौं सो थोरी ॥
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं । जगमगात मनि खंभन माहीं ।
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा । देखत राम बिआहु अनूपा ॥
दरस लालसा सकुच न थोरी । प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी ॥
भए मगन सब देखनिहारे । जनक समान अपान बिसारे ॥
प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी । नेगसहित सब रीति निबेरीं ॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं । सोभा कहि न जाति बिधि केहीं ॥
अरुन पराग जलजु भरि नीकें । ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें ॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन । बरु दुलहिनि बैठे एक आसन ॥

छं॰ बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए ।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए ॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा ।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा ॥ १ ॥

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै ।
माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के ॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई ।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई ॥ २ ॥

जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै ।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै ॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी ।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी ॥ ३ ॥

अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं ।
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं ॥
सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं ।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं ॥ ४ ॥


दो॰ मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि ।
जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि ॥ ३२५ ॥

जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी । सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी ॥
कहि न जाइ कछु दाइज भूरी । रहा कनक मनि मंडपु पूरी ॥
कंबल बसन बिचित्र पटोरे । भाँति भाँति बहु मोल न थोरे ॥
गज रथ तुरग दास अरु दासी । धेनु अलंकृत कामदुहा सी ॥
बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा । कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा ॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने । लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने ॥
दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा । उबरा सो जनवासेहिं आवा ॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी । बोले सब बरात सनमानी ॥

छं॰ सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै ।
प्रमुदित महा मुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै ॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ ॥ १ ॥

कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों ।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों ॥
संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए ।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए ॥ २ ॥

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई ।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई ॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए ।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए ॥ ३ ॥

बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले ।
दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले ॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै ।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै ॥ ४ ॥


दो॰ पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न ।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन ॥ ३२६ ॥

मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम
स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन । सोभा कोटि मनोज लजावन ॥
जावक जुत पद कमल सुहाए । मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए ॥
पीत पुनीत मनोहर धोती । हरति बाल रबि दामिनि जोती ॥
कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर । बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥
पीत जनेउ महाछबि देई । कर मुद्रिका चोरि चितु लेई ॥
सोहत ब्याह साज सब साजे । उर आयत उरभूषन राजे ॥
पिअर उपरना काखासोती । दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती ॥
नयन कमल कल कुंडल काना । बदनु सकल सौंदर्ज निधाना ॥
सुंदर भृकुटि मनोहर नासा । भाल तिलकु रुचिरता निवासा ॥
सोहत मौरु मनोहर माथे । मंगलमय मुकुता मनि गाथे ॥

छं॰ गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं ।
पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं ॥
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं ।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं ॥ १ ॥

कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै ।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै ॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं ।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं ॥ २ ॥

निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की ।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी ॥
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं ।
बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं ॥ ३ ॥

तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा ।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा ॥
जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी ।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी ॥ ४ ॥


दो॰ सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास ।
सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास ॥ ३२७ ॥

पुनि जेवनार भई बहु भाँती । पठए जनक बोलाइ बराती ॥
परत पाँवड़े बसन अनूपा । सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा ॥
सादर सबके पाय पखारे । जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे ॥
धोए जनक अवधपति चरना । सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना ॥
बहुरि राम पद पंकज धोए । जे हर हृदय कमल महुँ गोए ॥
तीनिउ भाई राम सम जानी । धोए चरन जनक निज पानी ॥
आसन उचित सबहि नृप दीन्हे । बोलि सूपकारी सब लीन्हे ॥
सादर लगे परन पनवारे । कनक कील मनि पान सँवारे ॥

दो॰ सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत ।
छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत ॥ ३२८ ॥

पंच कवल करि जेवन लागे । गारि गान सुनि अति अनुरागे ॥
भाँति अनेक परे पकवाने । सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने ॥
परुसन लगे सुआर सुजाना । बिंजन बिबिध नाम को जाना ॥
चारि भाँति भोजन बिधि गाई । एक एक बिधि बरनि न जाई ॥
छरस रुचिर बिंजन बहु जाती । एक एक रस अगनित भाँती ॥
जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी । लै लै नाम पुरुष अरु नारी ॥
समय सुहावनि गारि बिराजा । हँसत राउ सुनि सहित समाजा ॥
एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा । आदर सहित आचमनु दीन्हा ॥

दो॰ देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज ।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज ॥ ३२९ ॥

नित नूतन मंगल पुर माहीं । निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं ॥
बड़े भोर भूपतिमनि जागे । जाचक गुन गन गावन लागे ॥
देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता । किमि कहि जात मोदु मन जेता ॥
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं । महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं ॥
करि प्रनाम पूजा कर जोरी । बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी ॥
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा । भयउँ आजु मैं पूरनकाजा ॥
अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं । देहु धेनु सब भाँति बनाई ॥
सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई । पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई ॥

दो॰ बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि ।
आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि ॥ ३३० ॥

दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे । पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे ॥
चारि लच्छ बर धेनु मगाई । कामसुरभि सम सील सुहाई ॥
सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं । मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं ॥
करत बिनय बहु बिधि नरनाहू । लहेउँ आजु जग जीवन लाहू ॥
पाइ असीस महीसु अनंदा । लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा ॥
कनक बसन मनि हय गय स्यंदन । दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन ॥
चले पढ़त गावत गुन गाथा । जय जय जय दिनकर कुल नाथा ॥
एहि बिधि राम बिआह उछाहू । सकइ न बरनि सहस मुख जाहू ॥

दो॰ बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ ॥ ३३१ ॥

जनक सनेहु सीलु करतूती । नृपु सब भाँति सराह बिभूती ॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा । राखहिं जनकु सहित अनुरागा ॥
नित नूतन आदरु अधिकाई । दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई ॥
नित नव नगर अनंद उछाहू । दसरथ गवनु सोहाइ न काहू ॥
बहुत दिवस बीते एहि भाँती । जनु सनेह रजु बँधे बराती ॥
कौसिक सतानंद तब जाई । कहा बिदेह नृपहि समुझाई ॥
अब दसरथ कहँ आयसु देहू । जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू ॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए । कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए ॥

दो॰ अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ ॥ ३३२ ॥

पुरबासी सुनि चलिहि बराता । बूझत बिकल परस्पर बाता ॥
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने । मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने ॥
जहँ जहँ आवत बसे बराती । तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती ॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना । भोजन साजु न जाइ बखाना ॥
भरि भरि बसहँ अपार कहारा । पठई जनक अनेक सुसारा ॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा । सकल सँवारे नख अरु सीसा ॥
मत्त सहस दस सिंधुर साजे । जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे ॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना । महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना ॥

दो॰ दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि ।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि ॥ ३३३ ॥

सबु समाजु एहि भाँति बनाई । जनक अवधपुर दीन्ह पठाई ॥
चलिहि बरात सुनत सब रानीं । बिकल मीनगन जनु लघु पानीं ॥
पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं । देइ असीस सिखावनु देहीं ॥
होएहु संतत पियहि पिआरी । चिरु अहिबात असीस हमारी ॥
सासु ससुर गुर सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू ॥
अति सनेह बस सखीं सयानी । नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी ॥
सादर सकल कुअँरि समुझाई । रानिन्ह बार बार उर लाई ॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं । कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं ॥

दो॰ तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु ।
चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु ॥ ३३४ ॥

चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए । नगर नारि नर देखन धाए ॥
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू । कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू ॥
लेहु नयन भरि रूप निहारी । प्रिय पाहुने भूप सुत चारी ॥
को जानै केहि सुकृत सयानी । नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी ॥
मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा । सुरतरु लहै जनम कर भूखा ॥
पाव नारकी हरिपदु जैसें । इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे ॥
निरखि राम सोभा उर धरहू । निज मन फनि मूरति मनि करहू ॥
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता । गए कुअँर सब राज निकेता ॥

दो॰ रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु ।
करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु ॥ ३३५ ॥

देखि राम छबि अति अनुरागीं । प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं ॥
रही न लाज प्रीति उर छाई । सहज सनेहु बरनि किमि जाई ॥
भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए । छरस असन अति हेतु जेवाँए ॥
बोले रामु सुअवसरु जानी । सील सनेह सकुचमय बानी ॥
राउ अवधपुर चहत सिधाए । बिदा होन हम इहाँ पठाए ॥
मातु मुदित मन आयसु देहू । बालक जानि करब नित नेहू ॥
सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू । बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू ॥
हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही । पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही ॥

छं॰ करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै ।
बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै ॥
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी ।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी ॥

सो॰ तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय ।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥ ३३६ ॥

अस कहि रही चरन गहि रानी । प्रेम पंक जनु गिरा समानी ॥
सुनि सनेहसानी बर बानी । बहुबिधि राम सासु सनमानी ॥
राम बिदा मागत कर जोरी । कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी ॥
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई । भाइन